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दर्शन चिन्तन की विशदता, स्पष्टता व सत्योन्मुखता के लिए नितान्त अनिवार्य है। भगवान महावीर का यह कथन–'सम्मद्दिट्ठीस्स सम्मं सुर्य'सम्यग्दृष्टि का सभी चिन्तन सम्यग् दिशागामी होता है । वह असम्यग् को भी सम्यग् में परिणत करने में कुशल होता है। अतः जहां-जहां भी नीति सम्बन्धी विरोधी चिन्तन व विवादास्पद प्रसंग आते हैं वहां सम्यग् दृष्टिपूर्वक उनका सत्योन्मुखी समाधान खोजने की लेखक की अवधारणा समग्र नीतिशास्त्र के लिए एक मार्गदर्शक स्थापना का कार्य करेगी।
जगत की समग्र बुराइयों को स्थूल रूप में हिंसा,चोरी,असत्य, व्यभिचार तथा परिग्रह-संग्रह के रूप में पाँच भागों में बांटा गया है । इन पाँचों के निरोध के लिए अहिंसा, सत्य, अवौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह के रूप में पाँच व्रत निर्धारित किए गए हैं। फिर वे महाव्रत तथा अणवत के रूप में दो विधाओं में विभक्त हैं। जहाँ व्रत-पालन में जरा भी अपवाद स्वीकृत नहीं होता, वे महाव्रत के रूप में अभिहित हैं और जहाँ व्यक्ति अपनी क्षमता या शक्ति को संजोते हुए कुछ अपवाद स्वीकार कर व्रतों का पालन करता है, उन्हें अणुव्रत कहा जाता है। महाव्रत की महत्ता इसमें है कि अपवाद अग्राह्य होने के कारण वहाँ संयम का परिपालन सार्वत्रिक है, समग्रतया है। वैसा करने में बड़ा आत्म-सामर्थ्य चाहिए, जिसे जूटा पाना बहुत थोड़े से व्यक्तियों के लिए संभव है । वैसे व्यक्ति वास्तव में महान होते हैं।
दूसरी विधा अणुव्रतों की है । वे अंणु या छोटे इसलिए कहे जाते हैं कि वहाँ साधक अपनी क्षमता की तरतमता के कारण अहिंसा, सत्य आदि के परिपालन में सीमा करता है।
जैन नीति का द्वितीय मूल आधार व्रत-परम्परा है । नीति के खरेपन या खोटेपन का मानदण्ड इन्हीं व्रतों के आदर्शों पर टिका है । जैन परम्परा की यह अपनी विशेषता रही है कि नीति-निर्धारण में व्रतों के आदर्श अपने मौलिक स्वरूप को अक्षुण्ण रखते हुए कुछ परिष्कृत, परिवर्तित, नवीकृत तो हो सकते हैं किन्तु सिद्धान्तों की मूल आत्मा वहां मरती नहीं । भविष्य में होने वाले बहुत बड़े हित की आशा में वर्तमान में सिद्धान्तों के मूल को व्याहत नहीं किया जा सकता। अध्यात्म को लोकजनीन तो बनाया जा सकता है, किन्तु उसे अध्यात्म की सीमा से पृथक नहीं किया जा सकता । इसका फल जहां एक ओर अतिलोकजनीनता प्राप्त न कर सकने में आता है, वहाँ दूसरी ओर अहिंसा, सत्य आदि शाश्वत तत्त्वों से पृथक्
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