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________________ जैसे - विषकन्या के सम्बन्ध में जो पहले चर्चा की गई है, वहाँ चाणक्य ने राष्ट्र के ऐक्य परक विराट् हित को दृष्टि में रखते हुए उस कार्य को उचित और ग्राह्य माना है, जो यद्यपि स्थूल दृष्टि से देखने पर उचित नहीं लगता । रावणपुत्र मेघनाद के अनुष्ठान को भग्न किये जाने का प्रसंग भी इसी कोटि में आता है । रावण एक आततायी है, सती साध्वी पतिव्रता सीता का बलात् अपहरण करता है, जो किसी भी स्थिति में उचित कहे जाने योग्य नहीं है । मेघनाद अपने पिता के अस्तित्व और विजय के लिए युद्ध करता है, उस पिता के लिए, जिसने न्याय, नीति, मर्यादा और सदाचार को तिलांजलि दे दी है । वैसे गलत अभिप्र ेत को लेकर विजय-लाभ की कामना करने वाले के दलन के लिए यदि कुछ मर्यादा भंग भी होता है तो वह अनादेय नहीं कहा जा सकता । इसलिए राम के दल के योद्धाओं द्वारा मेघनाद के अनुष्ठान को तहस-नहस करने का जो प्रयत्न किया गया, वह अनीतिपूर्ण, अनौचित्यपूर्ण नहीं कहा गया । परिणाम- सरसता और परिणामविरसता प्रवृत्ति और निवृत्ति के मुख्य उपादान हैं, जो परम्परा से प्रचलित रहे हैं, किसी रूप में आज भी हैं । कोई बद्धमूल नियामकता उनके साथ नहीं जुड़ी है । कुछ ऐसे अपवाद भी दृष्टिगोचर होते हैं, जहाँ कतिपय अतिदृढ़तावादी, सिद्धान्तवादी व्यक्ति परम्परा का अनुसरण नहीं करते और वे अक्सर सही सिद्धान्तों के पालन में श्रेयस् मानते हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ का सम्बन्ध मुख्य रूप से जैन नीति - शास्त्र से है । जैन नीति की कोई इत्थंभूत परिभाषा दी जा सके, यह शक्य नहीं है । यहाँ संक्षेप में इस पर कुछ चर्चा करना अप्रासंगिक नहीं होगा । जैन शब्द विजेता और विजय से जुड़ा है । जो राग, द्व ेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि आत्म शत्रुओं को जीत लेते हैं, कर्मों के आवरण से अवरुद्ध आत्मशक्ति को कर्म - निर्जरण द्वारा उन्मुक्त कर, उजागर कर अपने शुद्ध स्वरूप को अधिगत कर लेते हैं, उन्हें 'जिन' कहा जाता है"जयति राग द्वेषौ इति जिन: ।" ऐसे आत्म-साक्षात्कर्ता, आत्मविजेता पुरुषों द्वारा जो मार्ग प्रतिपादित, प्ररूपित होता है, वह जैन धर्म है, जो आत्मा की सम्पूर्ण शुद्धि में विश्वास करता है । मुनिश्री ने जैन नीतिशास्त्र के मूल आधार भूत तत्त्वों का विवेचन करते हुए दो तत्त्वों पर ध्यान केन्द्रित किया है । प्रथम, सम्यग् दर्शन, द्विताय, सम्यक् चारित्र । सम्यग् ज्ञान तो दोनों में ही अन्तर्भुक्त है । सम्यग् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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