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है कि उससे क्रिया को गतिशील होने का विधिक्रम प्राप्त होता है । बाल्यावस्था से ही श्रमण- जीवन में दीक्षित श्री देवेन्द्र मुनिजी पांच महाव्रतों के धारक, अध्यात्म में सक्रिय, साधक तो हैं ही, उनकी यह उत्कट ज्ञानाराधना उनकी साधकता को और अधिक स्फूर्तिमय, विकासमय, तेजोमय बना देती है, जिसे साधक के जीवन का अलंकरण कहा जाना चाहिए ।
श्री देवेन्द्र मुनिजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में नीति का मानदण्ड, नीति का आधार, नीति निर्णय के प्रेरक तत्व, नीति, अनीति, दुर्नीति, नीतिशास्त्र का उद्गम, विकास, वाङ् मय की विविध विधाओं में नीति के तत्व, पाश्चात्य देशों और प्राच्य देशों की नीति परम्पराएँ, भारतीय नीति के विविध आयाम, अवधारणाएं, नीति सम्बन्धी समस्याएं उनके समाधान, नीतिशास्त्र की प्रकृति तथा उसका अन्य शास्त्रों / विज्ञानों के साथ सम्बन्ध, नीतिशास्त्र के विवेच्य विषय, नैतिक प्रत्यय, नैतिक निर्णय और उन पर मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक, तार्किक प्रभाव इत्यादि विषयों का प्रामाणिक आधार पर जो गवेषणात्मक दृष्टि से विवेचन किया है, वह जहाँ एक और उनके गहन अध्ययन का द्योतक है, वहाँ दूसरी ओर उनके प्रतिपादन - कौशल का परिचायक है ।
श्री देवेन्द्र मुनिजी के जीवन में जैसे ऋजुता, सरलता एवं सहजता है, उनके निरूपण - विश्लेषण में भी तदनुरूप सरलता, सहजता के दर्शन होते हैं, जो स्वाभाविक है । अत्यधिक कठिन एवं जटिल विषयों को जिस सरलता से वे व्याख्यात करते हैं, निश्चय ही वह उनके लेखन का असाधारण वैशिष्ट्य है । प्रस्तुत ग्रन्थ में उपर्युक्त विषयों का जो विशद विवेचन हुआ है, व नीति के क्षेत्र में अब तक हुए विकास का बड़ा क्रमबद्ध सुन्दर दिग्दर्शन कराता है ।
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ऊपर जो नीति विषयक चर्चा की गई है, उस पर गहराई से विचार करें तो यह प्रकट होता है कि नीति सम्बन्धी समीचीनता और असमी - चीनता का निर्णय केवल वर्तमान के आधार पर नहीं किया जाता रहा है । अतीत, वर्तमान तथा भविष्य की त्रिविध शृंखला को अथवा मुख्यतः सत् असतु मूलक भावी परिणाम को दृष्टि में रखते हुए वैसे निर्णय होते रहे हैं, जिनके आधार पर वर्तमान में दूषित या अनुचित दीखने वाले कार्य भी उत्तम और उचित माने जाते हैं ।
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