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________________ मानो खो देते हैं । गम्भीरतम अध्ययन, प्रतिभा और प्रज्ञा तो मांगता ही है; वह बहुत बड़ा श्रम भी मांगता है । श्रम का संबल पाकर संस्कारलभ्य मेधा शतमुखी विकास प्रवण होती है । श्री देवेन्द्र मुनि जी में यह सब सहज रूप में सधा है । स्वाध्याय को जो तप कहा है, वह उनके जीवन में यथावत् रूप में प्रतिफलित है। एक ओर बहुत बड़ी विशेषता मैं उनमें पाता हूँ, इतने बड़े अध्येता, विचक्षण, विलक्षण विद्वान् होते हुए भी वे बड़े विनय शील हैं । वैदुष्य, पांडित्य का थोड़ा भी अहंकार उन्हें छू तक नहीं पाया है । वे बड़े मधुर प्रिय तथा शिष्ट भाषी और गुणग्राही हैं, विद्वानों का बहुत आदर करते हैं । विद्वानों में प्रायः एक कमी देखी जाती रही है । वे एक दूसरे को सह नहीं पाते । एक बड़े विद्वान को देखकर दूसरे में ईर्ष्या भाव जाग उठता है । श्री देवेन्द्र मुनिजी इसके शत-प्रतिशत अपवाद हैं । निःसन्देह यह उनका सौभाग्य है कि इतनी शालीन सौम्य, सरल, मृदुल प्रकृति उन्हें प्राप्त हो सकी । वेद का एक बड़ा सुन्दर पद है "विद्या वं ब्राह्मणमाजगाम, गोपाय मा शेवधिष्टेऽहमस्मि । असूयकायानृजवेऽयताय, न मां ब्रूयाः वीर्यवती तथा स्याम् ॥” विद्या ब्राह्मण के पास आई और उससे कहने लगी- ब्राह्मण ! तू मेरी रक्षा करना । मैं तुम्हारी बहुत बड़ी निधि हूँ । मुझे ऐसे व्यक्ति को मत देना, जो ईर्ष्यालु हो, जो ऋजु सरल न हो, जो संयम युक्त न हो । यदि तुम ऐसा करोगे तो मैं शक्तिशालिनी बनूंगी, मुझ में ओज प्रस्फुटित होगा । विद्या के ये उच्च आदर्श देवेन्द्र मुनिजी के जीवन में साक्षात् सम्यक् अनुस्यूत देखे जाते हैं । Jain Education International साधक के जीवन के दो मुख्य अंग हैं - ज्ञान तथा ज्ञान के अनुरूप चर्या का अनुसरण । दोनों का परस्पर सापेक्ष सम्बन्ध है । ज्ञान चर्या को सत्यप्रवण पथ दिखलाता है । उससे अनुप्रेरित, अभिचालित चर्या शक्ति और सार्थक्य प्राप्त करती है, जिसमें ज्ञान की फलवत्ता है । ये दोनों पक्ष जीवन में सन्तुलित, समन्वित रूप में सधते जाएँ तो साधक का जीवन सफल है । इन दोनों में "पढमं नाणं तओ दया" के अनुसार ज्ञान का प्राथम्य इसलिए ( २३ ) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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