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________________ २७४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन (४) ब्रह्मचर्याणुव्रत और (५) अपरिग्रहाणुव्रत । ____ गुणव्रत तीन हैं-(६) दिशापरिमाणवत (७) उपभोग-परिभोग परिमाणव्रत और (८) अनर्थदण्डविरमणव्रत । शिक्षावत चार हैं-(९) सामायिक व्रत (१०) देशावकाशिक व्रत (११) पौषधोपवास व्रत और (१२) अतिथि संविभाग व्रत ।। १. स्थानांग (५/१), उपासक दशांग , आवश्यक सूत्र आदि अंग-आगम ग्रंथों में इन पांचों अणुव्रतों के नाम इस प्रकार दिये गये हैं१. स्थूल प्राणातिपातविरमण २. स्थूल मृषावाद विरमण ३. स्थूल अदत्तादान विरमण ४. स्वदार (स्वपत्नी) सन्तोष व्रत ५. इच्छापरिमाण व्रत । २. गांधीजी ने भी सदाचारी नैतिक गृहस्थ के लिए ११ व्रतों का विधान किया है अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य असंग्रह । शरीरश्रम अस्वाद सर्वत्र भयवर्जन ॥ सर्वधर्मी समानत्व स्वदेशी समभावना । ही एकादशे सेवावी नम्रत्वे व्रत निश्चये ।। (१) अहिंसा (२) सत्य (३) अचौर्य (४) ब्रह्मचर्य (५) अपरिग्रह (अधिक संग्रह नहीं करना) (६) शरीर श्रम (७) अस्वाद (रसना इन्द्रिय का संयम) (८) भयवर्जन (न स्वयं भयभीत होना और न अन्य को भयभीत करना) [विशेष-प्रश्न व्याकरण २/२ और उत्तराध्ययन ८/२ में भी कहा गया है कि भयभीत साधक साधना से विचलित हो जाता है, वह अपने दायित्व का निर्वाह नहीं कर सकता । भय से उपरत साधक ही अहिंसा (अन्य सभी स्वीकृत व्रतों का भी) का पालन कर सकता है । अतः जैन विचारणा के अनुसार अभयव्रतसाधना का प्राण है ।] (९) सर्वधर्मसमभाव (१०) स्वदेशी (अपने देश में निर्मित वस्तुओं का उपयोग करना) (११) समभावना (मानव मात्र को समान समझना- छूआछूतस्पास्पर्ध्य की भावना न रखना) [विशेष-इनमें से प्रथम पाँच व्रत तो जैन धर्मानुमोदित पंच अणुव्रत ही हैं। शरीरश्रम, अस्वाद, भयवर्जन आदि भी जैन धर्मानुकूल हैं । स्वदेशी व्रत राष्ट्रीय भावना को प्रगट करता है, जो मार्गानुसारी के ३५ गुणों में से चौदहवें गण में समाविष्ट हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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