________________
नैतिक उत्कर्ष | २७५
व्रतों के संबंध में सावधानियां
जैन शास्त्रों में इन १२ व्रतों को ग्रहण करना तथा इनकी साधना करना गृहीधर्म कहा गया है। गृहस्थ इन व्रतों का पालन करता भी है, किन्तु साधक को व्रत ग्रहण करने से पहले अपनो शक्ति, सामर्थ्य आदि की अच्छी तरह परख कर लेनी चाहिए, जैसा कि दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है
अपना मनोबल, शारीरिक (इन्द्रियों की ) शक्ति, पराक्रम, स्वास्थ्य, श्रद्धा, आरोग्य (रोगरहितता) क्षेत्र, (स्थान) और काल को भली भाँति जानकर ही किसी सद्कार्य में स्वयं को नियोजित करना चाहिये ।"
व्रत ग्रहण करने वाले नैतिक सद्गृहस्थ के लिए आवश्यक है कि वह अपने स्वीकृत यम-नियमों का दृढ़तापूर्वक पालन करे । आत्मवंचना आदि दोष इस स्थिति में बिल्कुल भी अपेक्षित नहीं हैं । सरलता और दृढ़ता ही अति आवश्यक है ।
यहाँ प्रसंगोपात्तरूप में एक बात उल्लेखनीय है कि जैन धर्म मूलरूप से अनाग्रही है | आगमों में कहीं ऐसा उल्लेख नहीं मिलता कि स्वयं भगवान ने अथवा धर्मगुरुओं ने किसी भी व्यक्ति को व्रत ग्रहण करने का आग्रह किया हो, अपितु व्यक्ति अपनी शक्ति, स्थिति और सामर्थ्य के अनुसार स्वयं ही व्रत ग्रहण करने की इच्छा प्रगट करता है और भगवान अथवा धर्मगुरु इतना ही कहते हैं - हे देवानुप्रिय ! जिसमें तुम्हें सुख हो वैसा ही करो, धर्म कार्य में विलंब मत करो ।
वस्तुतः व्रतग्रहण नैतिकता के उत्कर्ष की वह स्थिति है जहाँ मानव की नैतिक चेतना इतनी विकसित हो जाती है कि उसे प्रेरणा अथवा आग्रह की आवश्यकता ही नहीं होती, वह स्वयं धर्मोपदेश सुनकर स्वयं ही अपनी विवेक बुद्धि से कर्तव्याकर्तव्य, करणीय-अकरणीय आदि का ऊहापोह करके एक दृढ़ निश्चय की अवस्था पर पहुंच जाता है और तदनुसार नियम ग्रहण करके अपने जीवन को नैतिक उत्कर्ष की ओर गतिशील बनाता है ।
१.
बलं थामं च पेहाए, सद्धामा रोग्गमप्पणो । खेत्तं कालं च विन्नाय, तहप्पाणं निजु'जए ॥ २. जहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह |
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
- दशवैकालिक ८ / ३५
www.jainelibrary.org