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________________ नैतिक उत्कर्ष | २७३ व्रती श्रावक' अथवा नैतिक शुभ का आचरण करने वाले व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि उसका हृदय दर्पण के समान स्वच्छ हो - अद्दागसमाणा और उसकी वृत्ति प्रवृत्ति माता-पिता के समान वत्सलतापूर्ण हो - अम्मापि समाणा । वह गुणी व त्यागीजनों आदि का सत्कार और सम्मान करे ही, साथ ही दीन - अनाथ, समाज के अभावग्रस्त, रोगी, अकाल - बाढ़ पीड़ित लोगों की भी यथाशक्ति सहायता करे उन्हें अनुकंपापूर्वक दान दे, सहयोग करे । हृदय की स्वच्छता और उदारता तथा सेवा सहयोग सभी शुभ प्रत्यय हैं, जो नैतिक उत्कर्ष के लिए आवश्यक हैं ही अपने स्वीकृत व्रतों का परिपालन करता हुआ पूर्णरूप से जीने में सक्षम होता है | श्रावक व्रत जैन शास्त्रों में श्रावक व्रतों की बहुत ही गहन गम्भीर और विस्तृत विवेचना की गई है । इनके आध्यात्मिक, व्यावहारिक और नैतिक पक्ष पर भरपूर प्रकाश डाला गया है। आचार्यों ने इन व्रतों को तीन वर्गों में विभाजित किया है १. अणुव्रत २. गुणव्रत, ३. शिक्षाव्रत अणुव्रत पाँच हैं - १. अहिंसाणुव्रत, २. सत्याणुव्रत, ३. अचौर्याणुव्रत, की वृत्ति यह ऐसा व्यक्ति नैतिक जीवन ९ ग्रंथों में व्रती श्रावक के अन्य नाम भी प्राप्त होते हैं- जैसे(१) श्रमणोपासक - श्रमणों ( साधु-साध्वियों ) की उपासना करने वाला । (२) अणुव्रती - छोटे व्रतों (Partial vows) का पालन करने वाला । (३) व्रताव्रती - व्रतों का आंशिक रूप से पालन करने से व्रती और पूर्णतया पालन की क्षमता के अभाव से अव्रती । (४) विरताविरत - भोगेच्छाओं का आंशिक रूप से त्यागी । (५) देशविरत - सांसारिक विषयों का आंशिक त्यागी । (६) देशसंयत - यथाशक्य संयम पालन करने वाला । (७) संयमासंयमी - कुछ अंश में संयमी और कुछ अंश में असंयमी । (८) श्राद्ध - देव - गुरु-धर्म के प्रति श्रद्धा रखने वाला । ( 8 ) उपासक - देव और धर्म की उपासना करने वाला । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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