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२७२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
(५) सद्गुरु की सेवा करने वाला है, (६) प्रवचन कुशल है, वह भाव श्रावक है।
भाव का अभिप्राय है, जिसका अन्तर्तम श्रावकगुणों से ओत-प्रोत हो चुका है।
श्रावक शब्द के तीनों अक्षरों का निर्वचन' इस प्रकार भी किया गया है
श्र-श्रद्धालु-सत्य-तथ्य पर दृढ़ विश्वास रखने वाला। व -विवेकी-प्रत्येक कार्य को विवेकपूर्ण ढंग से करने वाला।
क-क्रियावान–शुभ कार्यों में सतत उत्साहपूर्वक प्रवृत्ति करने वाला।
श्रावक शब्द का यह अन्तिम अक्षर-निर्वचन नीतिशास्त्र के लिए अत्यधिक उपयोगी है; क्योंकि सत्य पर दृढ़ विश्वास हुए बिना शुभाशुभादि का निर्णय तथा विवेकपूर्ण आचरण नहीं हो सकता और विवेक के अभाव में वह अपनी स्वीकृत मर्यादाओं-व्रतों का पालन सम्यक् प्रकार से, सही ढंग से नहीं कर सकता।
अतः नैतिक आचार के लिए उसमें सत्य श्रद्धा (विश्वास), विवेक और क्रियाशीलता तीनों ही आवश्यक हैं।
प्रस्तुत प्रसंग में व्रतों का संक्षिप्त परिचय उपयोगी होगा, क्योंकि व्रतों की स्वीकृति के उपरान्त ही सद्गृहस्थ श्रावक पद का अधिकारी बनता है अर्थात् श्रावक पद के लिए व्रत अनिवार्य है। व्रत का स्वरूप
_ 'व्रत' मानव द्वारा स्वयं स्वीकृत मर्यादा हैं। यह किसी अन्य द्वारा जबरदस्ती नहीं थोपे जाते अपितु नैतिक उत्कर्ष की ओर अपने दृढ़ कदम बढ़ाता हुआ मानव स्वेच्छा से इन्हें स्वीकारता है।
___ यह ध्यातव्य है कि श्रावक एक पद है, जिसको ग्रहण किया जाता है । जिस प्रकार डाक्टर के घर जन्म लेने से ही कोई डाक्टर नहीं बन जाता, अपितु उसे डाक्टरी की शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती है और उस में उत्तीर्ण होकर डाक्टरी की डिग्री लेनी पड़ती है तभी वह डाक्टर बनता है। इसी प्रकार श्रावक भी जब अणुव्रतों-श्रावकव्रतों को ग्रहण करके उनकी परिपालना करता है तभी वह व्रती श्रावक के पद से विभूषित होता है और नैतिक उत्कर्ष की ओर क्रियाशील होकर शुभत्व का आचरण करता है ।
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