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२६० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
जानता है । यदि कभी मन में बुरे विचार भी आ गये, वचन से कोई अपशब्द निकल गया अथवा कायिक चेष्टा हो गई तो भी यदि लज्जा का भाव मन में है तो वह तुरन्त सम्भल सकता है, अपने आचरण को सुधार कर सभ्यजनोचित बना सकता है ।
इसी अभिप्राय से आचार्य ने मार्गानुसारी के लिए सलज्जता एक आवश्यक गुण बताया है ।
दया और सलज्जता का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है, लज्जावान व्यक्ति के हृदय में ही दया का निवास होता है । दया का अभिप्राय हैअनुकम्पा | किसी व्यक्ति की पीड़ा को स्वयं अपने हृदय में अनुभव करना, हृदय का काँप जाना, दया का उत्स है ।
जो व्यक्ति लज्जावान होगा,
वह अपने हृदय के अनुकम्पन को
अनुभव करेगा और साथ ही उसके मन में भावना उमड़ेगी कि मैं समर्थ होकर भी इसे अभाव अथवा पीड़ा से मुक्त नहीं करता तो मेरे लिए लज्जा की बात है । लज्जा की यह भावना दया को प्रबल बनाएगी, और वह दया पालन में तत्पर होगा, क्रियाशील बनेगा तथा भरसक प्रयत्न करके उसकी पीड़ा मिटायेगा ।
दया सभी धर्मों का मूल है। जैन धर्म में तो दया को 'दया माता' कहा गया है । यह सभी जीवों की रक्षा करती है, माता के समान सभी प्राणियों का पालन-पोषण करती है, उन्हें सुख - साता पहुँचाती है, उनके जीवन में अभय की भावना भरती है ।
एक आचार्य ने तो यहां तक कहा है
दया नदी महातीरे सर्वे धर्माः दु मायिता ।
- सभी धर्मों के वृक्ष दया महानदी के तीर पर टिके हुए हैं ।
नैतिक जीवन में भी दया का बहुत महत्व है । यह नैतिकता का
मूल आधार है, इसके अभाव में नैतिकता की कल्पना भी नहीं की जा सकती । वह व्यक्ति कैसे नैतिक हो सकता है, जो दूसरों के कष्टों, अभावों, पीड़ाओं को देखकर भी अनदेखा करे, उपेक्षा कर दे ।
यता का भी दया के साथ अन्योन्य सम्बन्ध है । सौम्य व्यक्ति के हृदय में ही दया प्रतिष्ठित होती है और सौम्यता ही दया की भावना को ढ़ता प्रदान करती है ।
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