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________________ जैन दृष्टि सम्मत-व्यावहारिक नीति के सोपान | २५६ जिसका कोई नहीं, उसका सहायक बनकर उसकी विपत्ति दूर करना असंगिहिय परिजणस्स संगहियता भवइ' यही लोकसेवा का मूलमन्त्र हैं। इसी प्रकार के अन्य समाजोपयोगी कार्यों को करके मार्गानुसारी स्थायी लोकप्रियता प्राप्त करता है। (३०-३१-३२-३३) सलज्जता, सक्ष्यता, सौम्यता और परोपकार लज्जा नारी का आभूषण है तो पुरुष का भी । यह साधक के लिए विशुद्धि का स्थान भी है । भगवान महावीर ने कहा है __जो साधक आत्मा को विशुद्ध करना चाहता है, उसे चार विशुद्धि स्थानों का पालन करना आवश्यक है, वे हैं-लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य । लज्जा शब्द बहुत व्यापक है। इसके अभिप्राय को प्रगट करने वाला अंग्रेजी शब्द Shame है । शेम या लज्जा वह मानसिक संकोच है, जो किसी अनुचित अथवा निन्दित कार्य करने पर, गहित-कटु शब्द बोलने पर अथवा अशुभ भावों के मन में आने पर व्यक्ति अपने हृदय में अनुभव करता है तथा उस भाव की प्रतिच्छाया प्रमुख रूप से चेहरे पर और सामान्य रूप से सम्पूर्ण शरीर पर दृष्टिगोचर होती है। चेहरे की रंगत फीकी पड़ जाती है। ___मार्गानुसारी-नीति का पालन करने वाला व्यक्ति ऐसा कोई काम नहीं करता कि उसके समक्ष इस प्रकार की परिस्थिति उत्पन्न हो । लज्जा का विरोधी शब्द निर्लज्ज अथवा बेशर्म है। आंखें फाड़फाड़कर देखना, सभ्यजनों के बीज अट्टहास करना, किसी भी व्यक्ति अथवा व्यक्तियों का उपहास करना, स्त्री अथवा स्त्रियों की ओर ताकना, उन्हें घर-घूर कर पैनी नजरों से देखना-यह सब निर्लज्जता है, निन्दनीय है। विवेको व्यक्ति ऐसी निर्लज्जता नहीं करता, वह लज्जा का मूल्य -योगशास्त्र ११५५ १. स्वानांग सूत्र । २. सलज्जः सदयः सौम्यः परोपकृतिकमठः । ३. लज्जा दया संजम बंभचे रं । कल्लाणभागिस्श विसोहिठाणं । -दशवकालिक ६।१।१३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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