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________________ जैन दृष्टि सम्मत-व्यावहारिक नीति के सोपान | २५१ यह सत्य है कि आहार प्राणी मात्र की मौलिक आवश्यकता है। संसारी सभी प्राणियों में जो संज्ञाएँ अनादि काल के लगी हुई हैं, उनमें भोजन संज्ञा का प्रमुख और प्रथम स्थान है। लेकिन मानव विकसित चेतना वाला प्राणी है। उसे अपनी बुद्धि का प्रयोग आहार के सम्बन्ध में भी अवश्य करना चाहिए। जैन आचार्यों ने आहार के सम्बन्ध में बड़ा मर्मस्पर्शी चिन्तन किया है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा गया है-ऐसा हित-मित भोजन करना चाहिए जो जीवन यात्रा तथा संयम यात्रा के लिए उपयोगी हो तथा जिससे न किसी प्रकार का विभ्रम हो और न ही धर्म की भ्रशंना हो ।। हित-मित और अल्पाहार की विशेषता बताते हुए कहा गया है कि ऐसा भोजन करने वाले को चिकित्सा की आवश्यकता नहीं पड़ती। भोजन का व्यक्ति के मन पर भी गहरा असर होता है। कहा भी है-"जैसा खावे अन्न, वैसा बने मन-और जैसा पीवे पानी, वैसी बोले वानी।" तामसिक भोजन से बुद्धि में विकार आता है और शरीर में आलस्य । इसी प्रकार राजसी भोजन मन में उत्त जना उत्पन्न करता है। इसोलिए व्यक्ति को सदा शुद्ध सात्विक भोजन करना चाहिए, जिससे शरीर में स्फूर्ति रहे और मन बुद्धि में शुभ विचारों का संचार होता रहे । __दूसरा प्रमुख विचारणीय तत्व है-भोजन का समय । इस विषय में नीतिकारों का मत है-जब भूख लगे, वही भोजन का समय है । आधुनिक युग में भोजन का समय नियत है । कारखाने के मजदूरों को नियत समय पर भोजन का अवकाश दिया जाता है। इसी प्रकार की व्यवस्था बैंकों तथा अन्य आफिसों में भी है और यही रवैया साधारणतया घरों में भी चल रहा है। . किन्तु फिर भी आजकल के व्यस्त जीवन में मनुष्य भोजन के विषय --प्रश्नव्याकरण २।४ १ तहा भोत्तव्वं-- जहा से जाया माता य भवति । न य भवति विन्भमो, न भंसणा य धम्मस्स । २ हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा। न ते विज्ज तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छिगा॥ ३ बुभुक्षाकालो भोजनकालः । -ओघनियुक्ति ५७८ -नीति वाक्यामृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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