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________________ २५२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन बहुत ही अनियमित हो गया है । यह अनियमितता अपचन, गैस आदि बीमारियाँ उत्पन्न करती है । सद्गृहस्थ के लिए सामान्यतः प्रातः का भोजन १२ बजे तक तथा सायंकालीन भोजन सूर्यास्त से पूर्व कर लेने का जैन नीति में विधान है । नीतिवान पुरुष का लक्ष्य नैतिक जीवन बिताना है और इसके लिए उसे स्वस्थ रहना जरूरी है । स्वास्थ्य ही पहला सुख है यह लौकिक उक्ति है । स्थानांग' में भी आरोग्य को दस सुखों में प्रथम सुख माना है और चरक संहिता' में इसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - चारों पुरुषार्थों का मूल कहा गया है । नैतिक जीवन का लक्ष्य भी धर्म और चरम पुरुषार्थ मोक्ष की ओर गति-प्रगति करना तथा उसे प्राप्त करना है । इसीलिए नीतिवान पुरुष सदा ही आहार का विवेक रखता है । (१८) धर्म मर्यादित अर्थ - कामसेवन गृहस्थ जीवन के सुचारु संचालन के लिए अर्थ (धन) तो आवश्यक है ही साथ ही काम ( कामनाओं - इच्छाओं) की संतुष्टि भी करनी ही पड़ती किंतु नैतिक विचारणा के अनुसार इन दोनों ( काम और अर्थ ) को अनियंत्रित है । नहीं छोड़ा जा सकता; क्योंकि अनियन्त्रित रूप में यह दोनों ही भयावह हैं, अनैतिक हैं । इसलिए इन दोनों पर धर्म का - नीति का नियन्त्रण आवश्यक है । आचार्य ने इसके लिए सूत्र दिया - अविरोधी भाव से त्रिवर्ग का सेवन करे ।' त्रिवर्ग का अभिप्राय है- धर्म, अर्थ और काम । अविरोधी भाव का नीतिपरक रहस्यार्थ है -- धर्म द्वारा किया जाने वाला सन्तुलन और मर्यादा स्थापन तथा नियन्त्रण | अर्थ और काम दोनों की ही उपमा दुष्ट अश्व से दी जा सकती है । जिस प्रकार दुष्ट अश्व सवार को गर्त में गिरा देता है, उसी प्रकार अनिय - न्त्रित अर्थ और काम भी मानव को अनैतिकता के गर्त में गिरा देते हैं, उसे अनैतिक आचरण की ओर धकेल देते हैं । १ स्थानांग सूत्र, स्थान १० २ धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् । ३ अन्योन्याऽप्रतिबन्धेन, त्रिवर्गमपि साधयन् । Jain Education International For Personal & Private Use Only - चरक संहिता १५ -- योगशास्त्र १/५२ www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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