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________________ जैन दृष्टि सम्मत---व्यावहारिक नीति के सोपान | २४६ (१२) निन्दनीय प्रवृत्ति का त्याग निन्दनीय प्रवृत्ति का अभिप्राय है-ऐसा आचरण जिससे समाज में व्यक्ति का अपयश हो, लोग उससे घृणा करने लगें, तिरस्कार करें। ऐसे काम अनेक हो सकते हैं-जैसे क्लेश, संघर्ष, कलह आदि तथा अतिशय लोभ, दहेज के वशीभूत होकर घर की बहू को जिन्दा ही जला देना, उत्पीड़न करना आदि। यह सत्य है कि कोई भी मानव तिरस्कार नहीं पाना चाहता, सभी को प्रशंसा प्रिय लगती है, फिर भी लोभ, क्रोध आदि कषायों के आवेश में सामान्य पुरुष ऐसी प्रवृत्तियाँ कर बैठते हैं, जो निन्दनीय होती हैं। लेकिन मार्गानुपारी विवेकी होता है, वह अपने आचरण को विवेक दृष्टि से संचालित करता है अतः कोई निन्दनीय काम नहीं करता। (१३) आय-व्यय का संतुलन __ गृहस्थ के लिए धन सदा से आवश्यक रहा है, क्योंकि इससे उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, इसीलिए वह धन का उपार्जन करता है और आवश्यकताओं पर उसका व्यय करता है। लेकिन आज का युग अर्थप्रधान है । फैशन,आडम्बर और शो-प्रवत्ति से मानव ग्रसित होता जा रहा है । आधुनिक विज्ञान द्वारा प्रदत्त फ्रिज, टी० वी० आदि नवीनतम उपकरणों से वह घर को सुसज्जित करना चाहता है। इन्हीं के आधार पर उसका जीवन स्तर मापा जाता है, समाज में उसकी प्रशंसा होती है, उसे सम्मान-सत्कार मिलता है।। किन्तु ये सभी साधन खर्चीले हैं। प्रत्येक व्यक्ति इन्हें नहीं खरीद सकता। जिसकी आय कम है, वह इन्हें कैसे खरीदे ? यदि कर्ज लेकर अथवा किश्तों पर इन्हें खरीदता है तो उसे कर्ज चुकाने की चिन्ता लग जाती है, घर की आवश्यक वस्तुओं में कटौती करनी पड़ती है, वह परेशानियों में घिर जाता है। इन सब फिक्रों और दुविधापूर्ण स्थिति से बचने के लिए आचार्य ने सूत्र दिया-अपनी आय के अनुसार व्यय करे । दूसरे शब्दों में, आय-व्यय में संतुलन बनाये रखे, उचित समायोजनपूर्ण स्थिति का निर्माण करे । जिससे वह सुख-शांतिपूर्ण नैतिक जीवन व्यतीत कर सके। आचार्य का यह सूत्र आधुनिक आडम्बरप्रिय मानव के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, जीवन में उतारने योग्य है । १. व्ययमायोचितं कुर्वन् । -योगशास्त्र १/५१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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