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२४८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
(१०) माता - पिता की सेवा
व्यक्ति के जीवन में माता-पिता का सर्वोच्च महत्वपूर्ण स्थान है । वे बालक के जीवन का निर्माण करते हैं । उसे सुसंस्कार देते हैं । बालक का जीवन उन्नत एवं सुखी बने इसके लिए अपनी सुख-सुविधाओं का त्याग करते हैं । उचित पालन-पोषण, और योग्य शिक्षा द्वारा उसे सम्मानपूर्ण ढंग से नैतिक जीवन जीने में सक्षम बनाते हैं ।
इस प्रकार माता-पिता का मानव के ऊपर बहुत उपकार होता है । इस उपकार के प्रतिफलस्वरूप पुत्र का कर्तव्य है कि वह माता-पिता की सेवा करे, उन्हें उचित और योग्य सम्मान दे । यही प्रेरणा आचार्य ने इस सूत्र द्वारा मार्गानुसारी को दी है ।
नीति के अनुसार भी माता-पिता की सेवा करना मानव का प्रथम कर्तव्य माना गया है, जिसे पूरा करना नैतिक जीवन के लिए अनिवार्य बताया गया है | 2
(११) उपद्रवग्रस्त स्थान का त्याग
मार्गानुसारी को उपद्रवग्रस्त स्थान का त्याग कर देना चाहिए क्योंकि उपद्रवों की स्थिति में व्यक्ति का जीवन संकटों से घिर जाता है ।
प्राचीनकाल में प्रमुख रूप से दो प्रकार के उपद्रव होते थे - ( १ ) स्वचक्र अथवा परचक्र और (२) महामारी | स्वचक्र का अभिप्राय है-अपने देश का शासक ही अन्यायी हो, प्रजा में संघर्ष उत्पन्न करे, मनमाने टैक्स लगाये, शोषण करे तथा और भी अनीतिपूर्ण कार्य करे । परचक्र का अभिप्राय है- दूसरा कोई राजा अपने देश पर आक्रमण करके प्रजा को लूटे |
आधुनिक युग में चिकित्सा विज्ञान इतना विकसित हो चुका है कि महामारियों का विशेष भय नहीं रहा, किन्तु स्वचक्र और परचक्र का कुछ भय अब भी है । इनके अतिरिक्त असामाजिक तत्वों के उपद्रव आदि और बढ़ गये हैं ।
लेकिन मार्गानुसारी का कर्तव्य है कि ऐसे रगड़े-झगड़े और बखेड़े वाले स्थानों से दूर रहे । मूल बात यह है कि किसी भी प्रकार से अपने चित्त में विक्षोभ उत्पन्न न होने दे ।
१. मातापित्रोश्चपूजकः ।
- योगशास्त्र १/५०
3. It is the first and foremost duty of a man to serve his parents.
-Experimental Morality
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