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________________ २४६ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन आत्मा भी पतित होती है और जिसकी निन्दा तथा चापलूसी की जाती है उसका भी पतन होता है । निन्दा सुनकर क्रोध में भर जाने से और झूठी प्रशंसा सुनकर गर्व में भरकर फूल जाने से । नैतिक व्यक्ति न किसी अन्य की निन्दा करता है और न झूठी प्रशंसा ही । यदि वह निन्दा करता भी है तो स्वयं अपनी आत्मा की ही, अनैतिक इच्छाओं और कार्यों के लिए, और इस प्रकार वह आत्म-निन्दा द्वारा नैतिक प्रगति में अग्रसर होता है, आगे बढ़ता है । (७-८) आदर्श घर मार्गानुसारी सद्गृहस्थ घर में निवास करता है । उसे घर बनाना आवश्यक है, क्योंकि उसके साथ स्त्री-पुत्र, माता-पिता आदि परिवार भी होता है और सुख-सुविधापूर्वक जीवन-यापन के लिए धन आदि आवश्यक साधन भी । इन सबकी सुरक्षा के लिए वह अपनी सुविधा के अनुकूल गृह निर्माण करता है । इस सूत्र में आदर्श घर कैसा होता है, यह बताया गया है । आचार्य कहा है कि ऐसे स्थान पर घर बनाये जो न एकदम खुला है और न एकदम गुप्त ही हो, पड़ोस अच्छा हो और द्वार अनेक न हों । आदर्श घर के निर्माण में स्वच्छ वायु तथा प्रकाश के निराबाध आवागमन का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है, क्योंकि यह दोनों स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य हैं । साथ ही घर की स्वच्छता भी जरूरी है । सफाई रखने से कीड़े-मकोड़े (क्षुद्र जीव-जन्तु) उत्पन्न नहीं होते तो व्यक्ति उनकी हिंसा से बचा रहता है । घर की सुरक्षा की दृष्टि से अनेक द्वारों का होना हानिप्रद है । यद्यपि व्यक्ति पूरा ध्यान रखता है, फिर भी असावधानीवश किसी द्वार की सांकल लगाना भूल जाय तो वहां से चोरों को आने का मार्ग मिल सकता है । यह भी हो सकता है कि चोर एक द्वार से घुसे और जब तक उसे पकड़ने का प्रयत्न किया जाय तब तक वह कोई बहुमूल्य वस्तु लेकर दूसरे द्वार से चम्पत हो जाय । इसलिए घर में अनेक द्वार नहीं रखने चाहिए । गृह निर्माण में पड़ौस का भी बहुत महत्व है । यदि पड़ोसी संघर्ष - प्रिय हुए, असामाजिक तत्वों का आस-पास निवास हुआ तो व्यक्ति की शान्ति भंग होती रहेगी, वह सुख से नहीं रह सकेगा । १. अनतिव्यक्तगुप्ते च स्थाने सुप्रातिवेश्मिके । अनेकनिर्गमद्वारविवर्जित निकेतनः ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only - योगशास्त्र १।४६ www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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