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जैन दृष्टि सम्मत–व्यावहारिक नीति के सोपान | २४५ गुणदृष्टि वाले व्यक्ति पापी से पापी और दुर्गुणी व्यक्ति में भी कोई न कोई गुण ढूंढ़ निकालते हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि गुणों पर रहती है और जीवन में उसका आदर्श ले लेते हैं। जबकि दोषदृष्टि वाले मानव गुणी व्यक्तियों में भी दुगुण ही देखते हैं ।
निन्दा व्यक्ति के पीठ पीछे की जाती है । इसीलिए भगवान महावीर ने निन्दा को पीठ का माँस खाना कहा है। तथागत बुद्ध ने इसे मुख से पाप इकट्ठा करना बताया है। आचार्य हेमचन्द्र ने प्रेरणा दी है किकिसी की भी निन्दा न करे और राजा आदि (सत्ताधिकारी, दण्डाधिकारी, धर्माधिकारी) अधिकार सम्पन्न व्यक्तियों की निन्दा तो विशेष रूप से नहीं करनी चाहिए। ___व्यावहारिक जीवन में निन्दा शत्रुता बढ़ाने वाली है, जिसकी निन्दा की जायेगी उसे बुरा लगेगा, वह मन में शत्रु ता की गांठ बांध लेगा और अवसर पाकर बदला चुकाने से नहीं चूकेगा। प्रसिद्ध कहावत है कि निन्दक का कोई मित्र नहीं होता।
__राजा आदि अधिकारी वर्ग तो रुष्ट होकर निन्दक के जीवन को तबाह कर सकते हैं। उसे दण्डित तथा प्रताडित भी कर सकते हैं। इसीलिए जैन नीति लेखकों ने सामाजिक व्यक्ति के लिए राजा आदि की निन्दा का विशेष रूप से निषेध किया है ।
___ निन्दा के साथ इसका विरोधी प्रत्यय भी जुड़ा हुआ है, वह है किसी की झूठी प्रशंसा करना, जो गुण उसमें नहीं हैं उन्हें भी बताना । इसे आधुनिक भाषा में खुशामद अथवा चापलूसी (flattery) कहा जाता है।
चापलूसी और निन्दा दोनों ही तीखे शस्त्र हैं जो व्यक्ति को बड़ी तेजी से काटते हैं। निन्दा तीखी है, सूनने वाले को बुरी लगती है, जबकि चापलूसी मीठी छुरी है, व्यक्ति इसे सुनकर फूला नहीं समाता। किन्तु दोनों ही पतन की राह हैं। इससे निन्दक और चापलूसी करने वाले की
-दशवकालिक ८।४७
१. पिट्ठि मंस न खाइज्जा । २. विचिनाति मुखे सो कलिं, कलिनातो सुखं न विन्दति ।
-सुत्तनिपात ३३६।२ -योगशास्त्र १९४८
३. अवर्णवादो न क्वापि राजादिषु विशेषत: ।
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