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________________ २४४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन जैन शास्त्रों की दृष्टि पाप के विषय में विशाल है । वहाँ सूक्ष्म हिंसा से लेकर बड़ी हिंसा, झूठ आदि पाप माने गये हैं। किन्तु नीतिशास्त्र इतनी गहराई में नहीं जाता। गृहस्थ भी नीतिशास्त्र के अनुसार नैतिक जीवन व्यतीत कर सकता है। व्यापार आदि में भी ईमानदारी की नीति से काम ले सकता है। अग्नि आदि के प्रयोग में सावधानी रख सकता है। पापभीरुता गुण का नीतिशास्त्रीय अर्थ इतना ही है कि व्यक्ति कभी भी कोई अनैतिक कार्य न करे, उन कार्यों से सदा बचता रहे । अशुभ सेपाप से बचना ही पापभीरुता है । (५) देशप्रसिद्ध अचार-पालनता यह गुण सामाजिकता से प्रत्यक्ष संबंधित है। इसका अभिप्राय है कि व्यक्ति ने जिस देश-समाज में जन्म लिया है, उसमें प्रचलित सभ्यता,संस्कृति और आचार परम्परा का पालन उसे करना चाहिए। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि समाज में प्रचलित अन्ध-विश्वासों, रूढ़ियों, हानिकारक परम्पराओं का भी पालन करना चाहिए । वे तो त्याज्य हैं, अनैतिक हैं। ऐसी परम्पराओं के पालन का नैतिक जीवन में कोई स्थान नहीं है । नीतिवान व्यक्ति तो समाज के लिए तथा अपने लिए भी हितकारी तथा नैतिकता को गति-प्रगति देने वाले, शुभ की ओर अग्रसर करने वाले आचारों का पालन करता है । यही इस सूत्र का अभिप्राय है । (६) अनिन्दकत्व निन्दा का अर्थ है- दूसरों की बुराई करना, उनके दोषों-दुर्गुणों का बखान । जो दोष उनमें नहीं हैं उन्हें भी उनमें आरोपित करना, बढ़ा-चढ़ाकर बताना। निन्दा दोषदृष्टि है। मानव में दो प्रकार की दृष्टियां हैं--(१) गुण दृष्टि और (२) दोष दृष्टि । गुणदृष्टि नैतिक और दोषदृष्टि अनैतिक है। दोषदृष्टि वाले व्यक्तियों का जीवन स्वयं दोषों से भर जाता है । १ (क)प्रसिद्ध च देशाचारं समाचरन् । -योगशास्त्र १/४८ (ख) तुलना करिये। While you are in Rome do as Romans do. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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