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________________ जैन दृष्टि सम्मत - वर परस्पर वय की दृष्टि से, सुन्दरता की दृष्टि से, यौवन की दृष्टि से तथा धार्मिक एवं वैचारिक दृष्टि से समान हों । विवाह योग्य वय (आयु) के लिए बताया गया है (१) बालभाव ( बचपन ) समाप्त होकर युवावस्था आने पर ' (२) नौ अंग प्रतिबुद्ध ( जाग्रत - समर्थ) होने पर # (३) गृहस्थ संबंधी भोग भोगने में समर्थ होने पर शास्त्रों के अनुसार यही विवाह की योग्य आयु है । - व्यावहारिक नीति के सोपान | २४३ इन उद्धरणों से बाल-विवाह, वृद्धविवाह, अनमेल विवाह, आदि सभी प्रकार के विवाहों का स्वयं ही निषेध हो जाता है । तथ्यात्मक दृष्टि से ऐसे सभी विवाह अनैतिकता को बढ़ावा देने वाले होते हैं । इन विवाहों से गुप्त दुराचार - व्यभिचार की प्रवृत्ति पनपती है जो समाज में अनैतिकता का ही प्रसार करती है । इसके विपरीत समान कुल-शील वाली पत्नी सुख-दुःख में साथ देने वाली धर्मसहायिका और पति के लिए सुखकारिणी होती है । साथ ही पति भी पत्नी को सुख देने वाला होता है । दोनों के ही दाम्पत्य जीवन में सुख-शान्ति की सरिता प्रवाहित होती है । 1 (४) पापभीरुता पाप की एक सरल परिभाषा है - जिसे करने से हृदय शंकित, भयग्रस्त तथा कलुषित होता है, आत्मा बंधन में पड़ता है एवं मन भय व आकुलता अनुभव करता है तथा जीवन पतित होता है, वह पाप है । उस पाप से सदा बचते रहना 'पापभीरुता' नाम का गुण है । 5 धर्मशास्त्रों में जिसे पाप कहा गया है, नीतिशास्त्र में उसे ही अनैतिकता कहा गया है । असत्यभाषण धर्मशास्त्र की भाषा में पाप है और नीतिशास्त्र की भाषा में अनैतिकता । १ उम्मुक बालभावे । २ णवंग सुत्त पडिबोहिए । ३ अलं भोगे समत्थे । ४ उपासक दशांग सूत्र ७ / २२७ ५ पाशयति पातयति वा पापम् । Jain Education International For Personal & Private Use Only - भगवती सूत्र ११/११ — ज्ञाता सूत्र १ / १ - भगवती सूत्र ११ / ११ - उत्तराध्ययनचूर्णि २ www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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