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________________ २३२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन कुछ व्यक्ति शिकार को मनोरंजन कहते हैं । किन्तु यह कैसा मनोरंजन कि दूसरे प्राणियों के प्राण ही ले ले | मनोरंजन तो वह है कि आप स्वयं भी प्रसन्न हों और दूसरों को भी खुशी बाँटें । शिकारी जैसा व्यवहार अन्य पशु-पक्षियों के प्रति करता है वैसा ही व्यवहार यदि कोई उसकी सन्तान के साथ करे तो उसे पता चलेगा कि शिकार मनोरंजन का साधन है या बर्बादी का । शिकार स्वयं के लिए भी बड़ा दुःखदायी होता है । अगले जन्मों की बात जाने भी दें तो इस जन्म में भी शिकारियों को कटु परिणाय भोगने पड़े हैं । न राजा दशरथ तीर से श्रवणकुमार के प्राण लेते और न उन्हें पुत्र-वियोग में तड़प-तड़पकर प्राण छोड़ने पड़ते । कर्मयोगी श्रीकृष्ण के देहावसान का कारण भी जराकुमार की शिकारी वृत्ति थी । कितना अनर्थ किया है मानव की इस शिकार - लिप्सा ने । यह अनर्थकारी, घोरहिंसक, दूसरों को प्राणान्तक पीड़ा देने वाला शिकार व्यसन घोर अनैतिक है, पाप है । आचार्य वसुनन्दी के शब्दों में- मद्य, मांस आदि का दीर्घ काल तक सेवन करने वाला जितने महान पाप का संचय करता है उतने सभी पापों को शिकारी एक दिन शिकार करके संचित कर लेता है । इसी कारण नैतिकता की ओर कदम बढ़ाने वाला व्यक्ति शिकार - व्यसन का त्याग कर देता है । चोरी चोरी, एक ऐसी प्रवृत्ति है, जो सभी समाजों में, चाहे वे सभ्य हों अथवा असभ्य, निन्दनीय मानी गई है। चोर को सर्वत्र दुत्कार, तिरस्कार ही मिलता है । चोरी के विभिन्न रूप चोरी, मालिक की आज्ञा अथवा अनुमति के बिना उसकी नजर बचाकर, किसी चीज को उठा लेना, अपने अधिकार में कर लेना, लूट-मार, उठाईगीरी, राहजनी, गाँठ काटना, ताला तोड़ना, डाकेजनी आदि सभी १ महुमज्जमंससेवी पावइ पापं चिरेण जं घोरं । तं एगदिणे पुरिसो लहेइ पारद्धिरमणेण ॥ Jain Education International -- वसुनन्दी श्रावकाचार ६६ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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