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________________ २२४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन वस्तुतः व्यसन वे विष वृक्ष हैं जो चारों ओर के वातावरण को जहरीला बना देते हैं । यह कीचड़ वाले ऐसे गड्ढे हैं जो आकर्षक पुष्पों से ढके हुए हों, और जैसे ही कोई व्यक्ति लालायित होकर उन पुष्पों के पास जाता है तो दल-दल में ऐसा गहरा फँस जाता है कि उसका निकलना कठिन हो जाता है । अमरबेल के समान व्यसन जिस पुरुष रूपी वृक्ष से लिपटते हैं उसका सर्वनाश कर देते हैं। व्यसनों के सात प्रकार जैनाचार्यों ने सात व्यसन बताये हैं-(१) जुआ खेलना, (२) मांसाहार, (३) मदिरापान, (४) वेश्यागमन, (५) शिकार, (६) चोरी, (७) परस्त्रीसेवन । इन सात व्यसनों के समान ही आधुनिक युग में कामोत्तेजक अश्लील पुस्तकों का पठन-पाठन, रोमांटिक-जासूसी उपन्यास, चलचित्रों के अश्लील दृश्य, बीड़ी सिगरेट, हैरोइन, ब्राउन सुगर, कोकीन आदि नशीली वस्तुएँ भी अत्यन्त हानिप्रद हैं। नवयुवकों में तो इन नशीले पदार्थों की आदत व्यसन की सीमा तक पहुँच गई है। वस्तुतः कोई भी आदत व्यसन तभी बनती है, जब व्यक्ति उसमें आकंठ निमग्न हो जाता है, डूब जाता है, लिप्त हो जाता है, उसे पाये बिना वह तीव्र बेचैनी अनुभव करता है। ऐसी दशा मनुष्य के लिए बहुत भयंकर होती है। अब हम जैन नीति में वर्णित सात व्यसनों का संक्षिप्त परिचय देंगे। जआ जूआ, अल्प परिश्रम से अधिक धन प्राप्ति की इच्छा से जन्मा हुआ दोष है । मानव इसकी ओर इसी कारण आकर्षित होता है किन्तु यह ऐसी विषवेल है कि मानव के सत्व को ही चूस जाता है, उसे निर्धन बना देता है, घर परिवार, समाज मित्र वर्ग की दृष्टि में गिरा देता है । जुआ अनेक रूपों में खेला जाता है । प्राचीनकाल में यह पासों (अक्ष) चौपड आदि के रूप में, मुगल काल में शतरंज के रूप में खेला जाता था तथा आधुनिक युग में यह ताश के पत्तों द्वारा खेला जाता है । रेस, लाटरी, सट्टा आदि भी जूए के ही विभिन्न रूप हैं । जूआ घोर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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