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२१६ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
रूप में उपगृहन शब्द का प्रयोग हुआ है । उसका आशय है-अन्य लोगों के दुर्गुणों को चर्चा का विषय न बनाना।
नीति में इन दोनों ही आशयों का महत्व है। सद्गुणों की प्रशंसा करने से समाज में उनका प्रसार होगा, समाज नैतिक बनेगा तथा किसी को उसकी भूल अकेले में बताई जाय तो वह सुधार भी लेगा और यदि ढिंढोरा पीटकर उसे बदनाम कर दिया जाय तो वह हठाग्रही बन जायेगा, उसके सुधार की आशा ही समाप्त हो जायेगी। ..
____ अतः नीति के प्रसार के लिए सद्गुणों की प्रशंसा जितनी आवश्यक है उतनी ही आवश्यकता है दूसरों की भूलों अथवा दोषों का ढिंढोरा न पीटने की । दूसरों की निंदा करने की वृत्ति समाजघाती है । अतः इन दोनों ही प्रवृत्तियों से व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में नैतिकता का प्रवेश होता है।
(६) स्थिरीकरण-स्थिरीकरण का अभिप्राय है-विचलित होते हुए को पुनः स्थिर करना।
स्व की अपेक्षा अपनी आत्मा को दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप धर्म से विचलित होने पर पूनः रत्नत्रयरूप धर्म में-आत्मभावों में स्थिर करना। इसे निश्चय अथवा स्वलक्ष्यी दृष्टि कहा जाता है।
व्यवहार अथवा पर की अपेक्षा से अन्य व्यक्तियों को, जो किसी कारणवश धर्म से विचलित हो रहे हैं, पुनः धर्ममार्ग में स्थिर करना, उन्हें उचित और जैसी अपेक्षा हो, सहयोग देना।
साधु को तो सम्यक्त्वी श्रावक वचनों द्वारा सहयोग दे सकता है अथवा संयम के लिए उपयोगी वस्तुओं का अभाव हो तो उनकी पूर्ति कर सकता है।
किन्तु गृहस्थ श्रावक की अनेक समस्याएँ हो सकती हैं; जैसेनिर्धनता, असहायता, रोगग्रस्तता, अन्यतीथिकों द्वारा फुसलाया जाना, प्रलोभन आदि। यह भी हो सकता है कि उनके वैभव और ऐश्वर्यमय जीवन से वह व्यक्ति स्वयं ही आकर्षित होकर स्वधर्म से च्युत हो रहा हो ।
___ इस दशा में सम्यक्त्वी श्रावक का कर्तव्य है कि धन से, सेवा से, शब्दों से अथवा जिस किसी प्रकार से संभव हो, उसकी सहायता तथा सहयोग करके दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म में पूनः स्थिर करे।
नीति के अनुसार स्थिरीकरण के दोनों ही रूपों का महत्व है । व्यक्ति
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