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सम्यग्दर्शन का स्वरूप और नैतिक जीवन पर उसका प्रभाव | २१७
का कर्तव्य है कि आवेगों-संवेगों से अपनी आत्मा और मानसिक वृत्तियों को उद्वेलित न होने दे, मस्तिष्कीय संतुलन बनाये रखे । यदि मस्तिष्क का संतुलन न रहा तो वह कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय न कर सकेगा और परिणामस्वरूप अनैतिक आचरण भी कर सकता है ।
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व्यक्ति अकेला नहीं है, उसका संपूर्ण जीवन व्यवहार समाज सापेक्ष है | यदि समाज के अन्य व्यक्ति अनैतिक आचरणों में प्रवृत्त हो जायेंगे तो वह स्वयं भी नैतिक रहने में सक्षम न हो सकेगा । अतः सहयोग देकर अन्य व्यक्तियों को नैतिक बनाये रखना उसका नैतिक कर्तव्य है । इसी नैतिक कर्तव्य की ओर 'स्थिरीकरण' द्वारा संकेत किया गया है ।
(७) वात्सल्य - वात्सल्य 'वत्स' शब्द से बना है । वत्स का अर्थ होता है पुत्र-प्रम | माता-पिता, जिस प्रकार प्रतिफल की इच्छा किये बिना अपने पुत्र से विशुद्ध प्रेम करते हैं, संकटों- रोगों से उसकी रक्षा करते हैं, उसके हित के लिए सचेष्ट रहते हैं, उसके जीवन-निर्माण के लिए अपने सुखों का त्याग करते हैं, धन का व्यय करते हैं, उसी प्रकार सम्यक्त्वी श्रावक भी अपने साधर्मी बन्धुओं के हित आदि में सचेष्ट रहे ।
सम्यक्त्वी श्रावक का वात्सल्य भाव बहुत विस्तृत होता है, वह संसार के सम्पूर्ण प्राणियों की हित-कामना करता है, सभी को सुखी देखना चाहता है । उसका यह गुण विश्वमैत्री का सूचक है शब्दों में व्यक्त होते हैं - मित्ती से सव्वभूएसु' - प्राणियों के साथ मैत्री भाव है ।
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उसके हार्दिक उद्गार इन मेरा संसार के सभी जीवों
मैत्री का भाव नैतिकता का आदर्श है । यह वैर - विरोध, संघर्ष आदि का शमन करके सुख-शांति की सरिता प्रवाहित करने में सक्षम होता है । (८) प्रभावना - प्रभावना का अभिप्राय है - ऐसे कार्य करना जिससे धर्म संघ की उन्नति हो, महिमा बढ़े, कीर्ति का प्रसार हो, तथा समाज के अन्य व्यक्ति भी धर्म-मार्ग से प्रभावित हों, धर्म- पालन के लिए प्रेरित हों ।
ऐसी प्रभावना कई प्रकार से की जा सकती है । जैन परम्परा में ८ प्रकार के प्रभावक माने गये हैं- १ प्रावचनिक २ धर्मकथिक ३ वादी ४ नैमित्तिक ५ तपस्वी ६ विद्यासिद्ध ७ रसादिसिद्ध और ८ कवि ।
वास्तव में धार्मिक व्यक्ति का जीवन सुगन्धित सुमन के समान होता
१ आवश्यक सूत्र
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