SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दर्शन का स्वरूप और नैतिक जीवन पर उसका प्रभाव | २१५ (४) अमूढदृष्टित्व-मूढ़ता का अर्थ-अज्ञान, भ्रम, मिथ्या, विपर्यास है और दृष्टि का अर्थ है विश्वास । अमूढदृष्टित्व का अभिप्राय हुआ-ऐसा गुण जिसमें भ्रम तथा विपरीतता न हो। दशवैकालिक सूत्र में कहा है-- सम्मट्ठिी सया अमूढे ।। -सम्यग्दृष्टि सदा अमूढ़ रहता है,वह कभी मूढ़ताओं के चक्कर में नहीं फंसता। मूढ़ताएँ कई हैं, उनका स्वरूप जानना उपयोगी होगा। (१) देवमूढ़ता (रागी-द्वेषी देवों की उपासना), (२) लोकमूढ़ता (नदी स्नान आदि से आत्मशुद्धि मानना) (३) समयमूढ़ता (शास्त्र व धर्म के विषय में भ्रान्त धारणा) (४) गुरुमूढ़ता (निन्द्य आचरण वाले पाखंडी साधुओं को साधु मानना (५) समाजमूढ़ता (समाज में प्रचलित अनर्गल रूढ़ियों को धर्मानुमोदित परम्परा के रूप में स्वीकार करना) इसी प्रकार और भी हजारों प्रकार की मूढ़तायें हो सकती हैं। सम्यक्त्वी इन मूढ़ताओं के चक्कर में नहीं फँसता, इसका कारण यह है कि उसका विवेक जागृत रहता है, वह धर्म-अधर्म, देव-कुदेव, शास्त्रकूशास्त्र, गुरु-कुगुरु आदि के भेद को भलीभाँति समझता है और सुधर्म, देव आदि को स्वीकार करने में निर्भय वृत्ति वाला होता है। - नैतिक दृष्टि से भी मूढ़ता हेय है । मूढ़ व्यक्ति नैतिक और अनैतिक के भेद के विषय में भ्रमित रहता है, स्पष्ट निर्णय नहीं कर पाता तो इससे नैतिक आचरण की आशा भी नहीं की जा सकती। ऐसे व्यक्ति तो गतानुगतिक प्रवाह में बहने वाले होते हैं। वे अपने आचरण को नीति की दृष्टि से समीक्षा करने में सक्षम नहीं होते। ___(५) उपबृहण-प्राकृत के 'उवऊह' शब्द का संस्कृत रूप है उपबृहण । इसका अर्थ वृद्धि करना अथवा पोषण करना है । सम्यक्त्व के अंग के रूप में इसका अर्थ है अपने सद्गुणों में वृद्धि करना तथा सम्यकचारित्र का-सदाचार का पालन करने वाले गुणीजनों की प्रशंसा करके उनके चरित्रपालन में सहयोग देना। इसमें एक अर्थ और भी सन्निहित है, वह है ढाँकना, छिपाना। इस १ दशवकालिक सूत्र १०/७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy