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२१४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
जप-तप आदि धर्मक्रियाओं से लौकिक सुखों की प्राप्ति की इच्छा को भी काँक्षा कहा गया है, ऐसी कांक्षा न करना, निष्कांक्षा है। अथवा अन्य एकान्तिक मिथ्यावादियों के विलासमय जीवन को देखकर भी उनकी ओर आकर्षित न होना, उस मत को ग्रहण करने की मन से भी इच्छा न करना निष्कांक्षता है।
कांक्षा, जिस व्यक्ति की प्रबल होती है, उसे नैतिक जीवन जीने में कठिनाई आती है, कांक्षाएँ उसे अनैतिक आचरण के लिए प्रेरित करती हैं ? और निष्कांक्ष व्यक्ति सात्विक/नैतिक जीवन सरलता से जी लेता है । सूत्रकृतांग में कहा गया है
से हु चक्षु मणुस्साणं जे कंखाए अन्तए । -जिसने कांक्षाओं का अन्त कर दिया, वह मनुष्यों के लिए नेत्र के समान पथ प्रदर्शक है।
निष्कांक्षता गुण को धारण करने वाला स्वयं तो नैतिक प्रगति करता ही है, अन्य लोगों के लिए भी वह प्रेरणा-प्रदीप बन जाता है।
(२) निर्विचिकित्सा-चिकित्सा शब्द के दो अर्थ होते हैं-(१) धर्मकरणी के फल में सन्देह और (२) घृणा का भाव । अतः निर्विचिकित्सा का अभिप्राय है--अपनी धर्मकरणी के फल में सन्देह न करना और साथ ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना में लीन रहने वाले तपस्वी साधकों के मलिन वेश तथा देह से घृणा न करना।
नीति के अनुसार किसी से भी घृणा करना अनैतिक प्रत्यय है और सन्देह तो अनैतिकता है ही।
___ अंग्रेजी में कहावत है-Hate begets hate (घणा, घणा को जन्म देती है) । वस्तुतः घृणा ऐसा मानसिक छूत का रोग है जो बड़ी तीव्र गति से फैलता है । एक व्यक्ति दूसरे से घृणा करता है, दूसरा तीसरे से, इस तरह यह चक्र फैलता ही जाता है और सारे मानव समाज में व्याप्त हो जाता है और इस कुप्रवृत्ति से मानव षड्यन्त्रों, दुरभिसन्धियों के जाल में फँस जाता है, उसका नैतिक पतन हो जाता है।
घृणा से कितने संघर्ष और युद्ध हुए, अनेक उन्नत संस्कृतियाँ रसातल को चली गई, मानव इतिहास इसका बोलता प्रमाण है।
१ रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक १२ २ पुरुषार्थसिद्ध युपाय, श्लोक २३
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