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सम्यग्दर्शन का स्वरूप और नैतिक जीवन पर उसका प्रभाव | २१३
(१) निःशंकता-शंका अथवा संशयशीलता का एक ही अभिप्राय हैसंदेह । धर्म अधर्म आदि जो सत्य तत्त्व हैं, उन तत्त्वों के स्वरूप एवं फल में शंका न करना, उन पर दृढ़ आस्था रखना निःशंकित अंग है ।
कुछ आचार्यों ने शंका का अर्थ भयवाची मानकर निःशंकता का अर्थ निर्भयता स्वीकार किया है। और एक आचार्य ने सन्देहरहितता तथा निर्भयता-दोनों का ही निशंकित अंग में समन्वय कर लिया है।।
नीति की दृष्टि से निर्भयता और निःसंशयशीलता-दोनों ही नैतिक जीवन के लिए आवश्यक है । संशय तो सर्व कार्यविराधक है ही । गीता के शब्दों में संशयात्मा विनश्यति--संशयशील व्यक्ति विनष्ट हो जाता है, दूसरे शब्दों में उसके सभी सद्गुण समाप्त हो जाते हैं। संशयशील व्यक्ति चाहे जितना ऊंचा चिन्तक/विचारक हो, अन्त में उसका पतन होता है।
इसी प्रकार नैतिक आचरण के लिए निर्भयता भी आवश्यक है । अनेक व्यक्ति जीवन के भय से अनैतिक आचरण करते हैं तो बहुत से मरण तथा वेदना-पीड़ा के भय से । आजीविका के भय से तो अनैतिकता की प्रवृत्ति आज सामान्य बात हो गई है । फिर अत्राणभय से भयभीत मानव धन संग्रह में त्राण मानता है और अनैतिक साधनों से तथा शोषण आदि अनैतिक आचरण से धन एकत्र करता है।
अतः नैतिक आचरण के लिए व्यक्ति को शंका रहित तथा साथ ही निर्भय भी होना आवश्यक है।
(२) निष्कांक्षता-अपनी आत्मा के शुद्ध परमात्मरूप आनन्दस्वरूप में लीन रहना तथा परभाव की आकांक्षा न करना, निष्कांक्षता है।
१ (क) तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहि पवेदितं । -आचारांग १/५/५/१६३ (ख) शका का अर्थ आचार्य कुन्दकुन्द ने भय किया है । देखें
सम्मदिट्ठी जीवा णिस्संका होति णिब्भया तेण । सत्तभयविप्पमुक्का, जम्हा तम्हा हु णिस्सका ॥
-समयसार, गाथा २२८ (ग) श्रुतसागर सूरि ने दोनों ही अर्थ स्वीकार किये हैं
तत्रशंका-यथा निर्ग्रन्थानां मुक्तिरुक्ता तथा सग्रंथानामपिगृहस्थादीनां किं मुक्तिर्भवति इति शंका । अथवा भय प्रकृतिः शंका ।
-तत्वार्थ ७/२३ वृत्ति (घ) मूलाचार २/५२-५३
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