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२१२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
नीति की दृष्टि से लोकवाद, पुनर्जन्म आदि सभी सिद्धान्त काफी महत्वपूर्ण हैं, ये नीति के प्रत्यय भी हैं। कर्मवाद यानी कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ेगा, यह धारणा मानव को नैतिक बनाये रखती है । इसके विपरीत यदि उसे विश्वास हो जाय कि कर्म के फलभोग को नहीं भोगना पड़ेगा तो उसे नैतिक आचरण की ओर प्रेरित करने वाला कोई सबल प्रेरक ही नहीं रहेगा।
अतः यह स्पष्ट है कि सम्यक्त्व के यह पांचों लक्षण 'नैतिक आचरण के भी सबल प्रेरक हैं और नीति में इनका विशिष्ट महत्व है।
सम्यग्दर्शन के आठ अंग जिस प्रकार मानव शरीर के आठ प्रमुख अंग होते हैं और वह इनकी प्रमाणोपेतता, सुन्दरता और सुगठितता से सुशोभित होता है; उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के भी आठ प्रमुख अंग हैं और वह इनसे सुशोभित होता है । इन आठ अंगों को आचार भी कहा गया है और दर्शनाचार के रूप में ग्रंथों में वर्णित किये गये हैं।
___ इन आठ अंगों के नाम हैं-(१) निःशंकता (२) निष्कांक्षता (३) निर्विचिकित्सा (४) अमूढदृष्टित्व (५) उपबृहण (६) स्थिरीकरण (७) वात्सल्य और (८) प्रभावना ।।
इन आठों अंगों का परिपालन करना सम्यग्दर्शन की विशुद्धि और उसके संवर्धन के लिए अति आवश्यक है।
१ (क) निस्संकिय-निक्कंखिय -निवितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उववूहण-थिरीकरणे-वच्छल्ल-पभावणे अट्ठ ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र, २८/३१ (ख) प्रज्ञापनासूत्र, पद १ (ग) णिसंकिद णिकंखिद-णिविगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उवगृहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणा य ते अट्ठ ।।
__ -मूलाचार २०१ और भी देखें-सर्वार्थसिद्धि ६/२४, राजवातिक ६/२४, वसुनन्दी श्रावकाचार ४८, पंचाशक (उत्तरार्ध) ४७६-८०, प्रश्नोत्तर श्रावकाचार सर्ग ४, श्लोक ३२ से ६१ तक, रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक ११-१८ आदि
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