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सम्यग्दर्शन का स्वरूप और नैतिक जीवन पर उसका प्रभाव | २११
सकता है । सत्य नीति का प्रमुख प्रत्यय और विषय है । सत्य के अभाव में नैतिकता की कल्पना भी नहीं की जा सकती ।
(३) निर्वेद - शब्द शास्त्र की दृष्टि से निर्वेद का अर्थ - वासनाहीनता है । यहाँ वासना का व्यापक अर्थ अपेक्षित है । वासना अर्थात् तीव्र इच्छा संसार की, सांसारिक विषय भोगों की । और निर्वेद उसी सांसारिक वासना को अल्प, अल्पतम करने की वृत्ति है ।
निर्वेद से जीव काम भोगों से विरक्त, उदासीन होता है, आरंभपरिग्रह का त्याग (अथवा अत्यल्प ) करता है और अपने दृढ़ कदम मुक्ति मार्ग की ओर बढ़ाता है । 1
नीतिशास्त्र की अपेक्षा निर्वेद से अनासक्ति अर्थ ग्रहण करना अधिक उचित है | अनासक्ति - काम-भोगों से, सांसारिक सुखों से । जब व्यक्ति इन भौतिक सुखों के प्रति अनासक्त होकर फलाकांक्षा के बिना सत्कर्म करेगा तभी वह नैतिकता की ओर अग्रसर होगा; क्योंकि आसक्ति या फलाकांक्षा तो नैतिकता को ही बढ़ावा देने वाली है ।
(४) अनुकम्पा - अनुकम्पा का अभिप्राय किसी दुःखी, पीड़ित, अभावग्रस्त प्राणी की पीड़ा से अपना हृदय कम्पित हो जाना, उसके दुःख की अनुभूति अपने मन में करना है । इसका परिणाम दया के रूप में सामने आता है । दया यानी उस प्राणी के अभाव, दुःख व पीड़ा को मिटाने की भावना और तदनुसार क्रिया करना ।
अनुकम्पा अथवा दया का नैतिक जीवन में प्रमुख स्थान है जो अन्य व्यक्तियों के दुःख से द्रवित नहीं होगा, वह उनके दुःख को मिटाने का प्रयास भी नहीं करेगा । और ऐसा प्रयास न करना पहले दर्जे की अनेतिकता है । एक मनीषी के शब्दों में- नीति का हार्द ही है - जीव मात्र का विपत्ति से रक्षण करना, मनुष्य का सर्व प्रधान कर्तव्य है । और कर्तव्य का नीति में कितना स्थान है, इसे कहने की आवश्यकता नहीं है ।
(५) आस्तिक्य – जैन विचारणा के अनुसार लोक-परलोक, पुनर्जन्म, कर्मसिद्धान्त, आत्मवाद, अस्तिकाय, नव तत्व आदि के स्वरूप में दृढ़ आस्था अथवा विश्वास आस्तिक्य है ।
१ उत्तराध्ययन सूत्र २६ / ३
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