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२१० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
माने हैं - सम, शम और श्रम । तथ्यतः प्राकृत का 'सम' शब्द इन तीनों शब्दों के अर्थ को अपने अन्दर समाए हुए है ।
'सम' समानता अर्थ का द्योतक है । इसका अभिप्राय है - प्राणिमात्र को अपने समान समझना । जैन शास्त्रों में कहा गया है—अप्प समे मनिज्ज छप्पकाए (सभी जीवों को अपने समान समझना ) इसी भावना को उपनिषदकारों ने 'आत्मतुल्य सर्वभूतेषु' शब्दों में व्यक्त किया है ।
सम्यक्त्वी मानव, चूँकि जीव आदि तत्वों का स्वरूप भलीभाँति हृदयंगम कर लेता है, अतः उसकी निश्चित धारणा बन जाती है कि जैसी मेरी आत्मा है, वैसी ही कीट-पतंगों, वृक्षों आदि में भी है । अतः वह किसी भी जीव को तनिक भी दुःखी करने की भावना नहीं रखना ।
'शम' का वाच्यार्थ शमन है । यहां इसका अर्थ क्रोध, मान, आदि कषायों तथा लोभ संग्रह वृत्ति रूप वासनाओं की उपशांति है ।
'श्रम' का अभिप्राय मोक्षमार्ग में आगे बढ़ने का श्रम अथवा प्रयास करना, इस ओर उद्यम करना ।
नीतिशास्त्र की दृष्टि से नैतिक व्यक्ति में यह तीनों गुण आवश्यक हैं । यदि वह सभी प्राणियों को अपने समान न मानेगा तो अन्य लोगों के प्रति अनैतिकता का क्रूर आचरण करने में भी न चूकेगा । शोषण, हिंसा, आदि अनैतिक प्रवृत्तियों का मूल कारण समानता की भावना में कमी ही है । साथ ही जो व्यक्ति हानि-लाभ, सुख-दुःख अनुकूल-प्रतिकुल परिस्थितियों में मानसिक संतुलन न बनाये रख सकेगा, वह असंतुलित दशा में अनैतिकतापूर्ण आचरण करने लगे, इस बात की भी बहुत संभावना है ।
कषायों और वासनाओं के आवेग तो अनैतिक आचरण के मूल प्रेरक ही हैं । जो व्यक्ति अपनी आत्मोन्नति के लिए श्रम करेगा, वह अनैतिक आचरण कर ही नहीं सकता, क्योंकि अनैतिक आचरण से आत्मा पतित होती है ।
(२) संवेग - सामान्यतः संवेग शब्द का अर्थ अनुभूति होता है । इस रूप में इसका अर्थ होगा - आत्मानुभूति, स्वानुभूति ।
जैन दर्शन में इसका अर्थ मोक्ष की तीव्र आकांक्षा है । इस तीव्र इच्छा से व्यक्ति अयथार्थता, कषाय आदि को क्षय करके मुक्ति की ओर बढ़ता चला जाता है । "
नीति के दृष्टिकोण से संवेग को सत्य की अभीप्सा के रूप में लिया
उत्तराध्ययन सूत्र २६/२
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