________________
२०८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
हो जाता है, अथवा मिश्रित श्रद्धा वाला ( कुछ यथार्थ और कुछ यथार्थ श्रद्धा) या क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी बन जाता है ।
(३) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व – जीव जिस समय उपर्युक्त ७ कर्म प्रकृतियों में से चार, पांच, छह का क्षय करे और सम्यक्त्वमोह का उपशम करता है, उस समय जो सम्यक्त्व गुण प्रगट होता है, वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है । इस सम्यक्त्व का अधिक से अधिक समय छियासठ (६६) सागर है ।
(४) सास्वादन सम्यक्त्व - जिस समय औपशमिक सम्यक्त्व से जीव के भाव पतनोन्मुखी होते हैं, वह मिथ्यात्व गुणस्थान ( मिथ्या दृष्टिकोण) की ओर गिरता है, इस पतन की अवस्था में जो सम्यक्त्व गुण अवशिष्ट रहता है, सम्यक्त्व का आस्वाद जीव को आता है, उसे सास्वादन सम्यक्त्व कहा जाता है ।
(५) वेदक सम्यक्त्व - क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से ऊपर उठकर जीव जब क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए अग्रसर होता है, उस काल में सम्यक्त्वमोह के दलिकों (सूक्ष्म अंश) का वेदन करके उनका क्षय करता है, उस वेदन की अपेक्षा इस सम्यक्त्व को वेदक सम्यक्त्व कहा गया है । इसके उपरान्त जीव निश्चित रूप से क्षायिक सम्यक्त्वी बन जाता है ।
सास्वादन और वेदक - यह दोनों मध्य की अवस्थाएँ कही जा सकती हैं । सास्वादन सम्यक्त्व पतनोन्मुखी है और वेदक सम्यक्त्व उन्नतोन्मुखी । इन दोनों सम्यक्त्वों का काल भी अत्यल्प है ।
सम्यक्त्व का त्रिविध वर्गीकरण
सम्यक्त्व का त्रिविध वर्गीकरण व्यक्तियों की विभिन्न प्रकार की रुचियों तथा प्रवृत्तियों के आधार पर किया गया है ।
(१) कारक सम्यक्त्व - इस सम्यक्त्व ( यथार्थ - सत्य दृष्टि ) की प्राप्ति के साथ ही जीव सदाचरण ( सम्यक् चारित्र) की ओर उद्यत हो जाते हैं । कारक का अर्थ है कर्ता, सम्यग्दर्शन के साथ ही सम्यक्चारित्र की ओर स्वयं प्रवृत्त होने वाला तथा अन्यों को प्रेरित करने वाला सम्यग्दर्शी ।
(२) रोचक सम्यक्त्व - इस सम्यक्त्व का धारक आत्मा सम्यग् तत्वबोध के प्रति रुचि व जिज्ञासा रखता है, वह चाहे प्रवृत्ति न करें किन्तु तत्व ज्ञान की रुचि जरूर रखता है ।
(३) दीपक सम्यक्त्व -
- ऐसा व्यक्ति दूसरों को तत्वबोध और सदा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org