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२०६ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
में आसक्त को बंधन | अतः उसके भीतर राग-द्व ेष-मोह की वृत्तियाँ: अल्प हो जाती हैं, देह में रहते हुए भी देहाध्यास छूट जाता है ।
(II) व्यवहारसम्यग्दर्शन - नी तत्व तथा देव-गुरु-धर्म का यथार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन – व्यवहारसम्यग्दर्शन है । रुचि की अपेक्षा दस विध वर्गीकरण
उत्तराध्ययन सूत्र 2 में रुचि की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के दस प्रकार बताये हैं
(१) निसर्ग रुचि - स्वभाव से ही, परोपदेश के बिना, स्वयं के ही यथार्थं बोध से जीव, अजीव आदि तत्वों की श्रद्धा निसर्ग रुचि है ।
अथवा जिन भगवान के दृष्ट एवं उपदिष्ट भावों में तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ( इन चार निक्षेपों) से विशिष्ट पदार्थों के विषय में 'यह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है' ऐसी जो स्वतः स्फूर्त श्रद्धा है, वह निसर्ग रुचि है ।
(२) उपदेशरुचि - अरिहन्त भगवान तथा आचार्य, मुनि आदि के उपदेश से होने वाली तत्व श्रद्धा रूप रुचि, उपदेश रुचि है ।
(३) आज्ञा रुचि - जिनके राग-द्वेष, मोह और अज्ञान नष्ट हो गये हैं ऐसे जिनेश्वरदेव की आज्ञा से उनमें रुचि रखना ।
(४) सूत्ररुचि - अंग प्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत के अवगाहन से होने वाली तत्वश्रद्धारूप रुचि ।
(५) बीज रुचि - जैसे जल की सतह पर तेल की बूंद फैल जाती है, उसी प्रकार सम्यक्त्व के एक पद के तत्व बोध से अनेक पदों में फैल जाने वाली तत्व श्रद्धा रूप रुचि, बीज रुचि है ।
( ६ ) अभिगम रुचि - अभिगम अथवा अधिगम का अर्थ है विशिष्ट ज्ञान, उसके निमित्त से तत्व श्रद्धा रूप रुचि अभिगम रुचि कहलाती है । अंग, उपांग, प्रकीर्णक तथा आगमानुसारी ग्रंथों का अध्ययन करने से रुचि अथवा श्रद्धा का उत्पन्न होना अभिगम रुचि है ।
(७) विस्तार रुचि -- प्रमाण और नयों से द्रव्यों तथा भावों को जानने से उत्पन्न हुई तत्वश्रद्धा रूप रुचि, विस्तार रुचि है ।
(८) क्रियारुचि - दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय आदि के अनुष्ठानों में भाव से रुचि उत्पन्न होना, क्रिया रुचि है ।
१ उत्तराध्ययन सूत्र २८/१७-२७
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