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________________ सम्यग्दर्शन का स्वरूप और नैतिक जीवन पर उसका प्रभाव | २०५ (I) निसर्गज सम्यग्दर्शन – निसर्गज का अर्थ स्वभाव, प्रकृति अथवा परसहायनिरपेक्षता है । यह सम्यग्दर्शन पर की सहायता के बिना स्वयमेव ही आत्मा से स्फूर्त होता है । इसमें गुरु आदि के उपदेश, धर्मश्रवण, शास्त्र स्वाध्याय आदि किसी की भी अपेक्षा नहीं होती, व्यक्ति सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रकार का प्रयत्न नहीं करता । जिस प्रकार नदी प्रवाह में लुढ़कता हुआ पत्थर स्वयमेव ही गोल और चिकना हो जाता है, उसी प्रकार संसार में भटकते हुए जीव को परिणामों की सहज विशुद्धि के कारण अनायास ही इसकी उपलब्धि हो जाती है । (II) अधिगमज सम्यक्त्व - यह गुरु आदि के उपदेश से जीव को उपलब्ध होता है, धर्मश्रवण, शास्त्र स्वाध्याय आदि भी निमित्त बन सकते हैं । (ख) द्रव्य और भाव सम्यक्त्व (I) द्रव्यसम्यक्त्व - विशुद्ध रूप में परिणत किये मिथ्यात्व के पुद्गल, द्रव्यसम्यक्त्व कहलाते हैं । (II) भावसम्यक्त्व - उन पुद्गलों के निमित्त से होने वाली तत्वश्रद्धा, भावसम्यक्त्व कहलाती है । (ग) निश्चय और व्यवहार सम्यग्दर्शन (I) निश्चरसम्यग्दर्शन - आत्मा की शुद्ध रुचि निश्चयसम्यग्दर्शन है | 2 इसमें जीव और अजीव के भेदविज्ञान की प्रमुखता है । सम्यग्दर्शन का धारक जीव स्व-स्वरूप में रमण को मोक्ष का हेतु मानता है और पर-पदार्थों १ प्रवचन सारोद्वार, द्वार, १४६ गाथा ६४२ टीका । २ शुद्ध जीवास्तिकाय रुचिरूपस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य । और भी देखें - - नियमसार गाथा ३ की पद्मप्रभ टीका आत्ममात्ररुचिः सम्यग्दर्शन मोक्षहेतुकम् । तद्विरुद्धमतिभिथ्यादर्शनं भवहेतुकम् ॥ 1. एक मात्र आत्मभाव में रुचि ही सम्यग्दर्शन है और वही मोक्ष का हेतु है । इसके विपरीत भाव में -- अनात्मभाव में रुचि मिथ्यादर्शन है और वह संसार परिभ्रमण का हेतु है । - (अन्तर्नाद ) अमर भारती, अगस्त ७२ पृ० १ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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