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जैन नीति का आधार : सम्यग्दर्शन | १९३
सम्यक्त्व अथवा सम्यग्दर्शन को नैतिकता- नीतिपूर्ण आचरण का मूल आधार माना है, तथा इसी के आधार पर नैतिक प्रगति होती है । सम्यग्दर्शन का नीतिशास्त्रीय महत्व
आचार्य जिनभद्रगणि ने तत्वरुचि को सम्यक्त्व कहा है और उत्तराध्ययन सूत्र में भी दस प्रकार की रुचि को सम्यक्त्व के भेद माने हैं । तत्वरुचि की अपेक्षा सम्यक्त्व का अभिप्राय सत्य की उत्कृष्ट इच्छा है । नीतिशास्त्र में सम्यक्त्व का यह अभिप्राय बहुत ही महत्वपूर्ण है । इस अपेक्षा से नैतिक साधना में सम्यक्त्व को स्वयं ही अति विशिष्ट स्थान प्राप्त हो जाता है ।
कारण यह है कि सत्य की प्रकृष्ट रुचि ही नैतिकता की साधना को गति देने वाला प्रमुख प्रेरक तथा आधार है । जब तक मानव में सत्य - रुचि जागृत नहीं होगी, वह नैतिकता की ओर उन्मुख ही नहीं होगा । सत्य - रुचि वह आधारभूत तत्व है जो व्यक्ति को नैतिकता की ओर बढ़ने के लिए, नैतिक जीवन जीने के लिए प्रबल प्रेरणा प्रदान करती है । इस अपेक्षा से जैन-दर्शन में सम्यक्त्व को नीति का - नैतिक जीवन का - नैतिक प्रगति का आधार माना गया है, जो उचित है और उन्नत, विशुद्ध नैतिक आचरण के लिए अनिवार्य है ।
जैन धर्म में सम्यक्त्व का स्वरूप जैनधर्म में मोक्ष - साधना का प्रवेश द्वार सम्यक्त्व अथवा सम्यग्दर्शन है । इस पर कई अपेक्षाओं से विचार किया गया है तथा विभिन्न प्रकार से
१ मोक्ष -साधना की अपेक्षा से सम्यक्त्व का महत्व बौद्ध और वैदिक दोनों परपराओं ने स्वीकार किया है-
(क) सम्यक् दृष्टिकोण निर्वाण का किनारा है । - अंगुत्तरनिकाय १०/१२ (ख) सम्यग्दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति को कर्मबन्धन नहीं होता । - मनुस्मृति ६ / ७४ [ नोट - मनुस्मृति का यह कथन आचारांग ( १ / ३ / २ / ३७५ ) के 'सम्मत्तदंसी न करेइ पावं' इस वचन की ही पुष्टि करता है ।
- गीता ४ / ३६
(ग) श्रद्धावल्लभते ज्ञानम्
(घ) सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है तथा वह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वैसा ही उसका स्वरूप है ( वैसा ही वह बन जाता है. 1) - गीता १७ / ३
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