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________________ १९२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन (२१) विपरीत मिथ्यात्व-वस्तु तत्व को उसके विपरीत रूप में समझना। (२२) अक्रिया मिथ्यात्व-आत्मा को एकान्त रूप से अक्रिय मानना अथवा सिर्फ ज्ञान को महत्व देकर क्रिया (चारित्र) की उपेक्षा करना। (२३) मूढदृष्टित्व-मूढ़ावस्था, जिसमें जीव को तत्व का निर्णय करने की क्षमता नहीं होती। (२४) अविनय मिथ्यात्व-पूज्यजनों तथा सत्य तत्वों के प्रति असम्मान का भाव रखना, उनकी आज्ञा न मानना। (२५) आशातना मिथ्यात्व-पूज्यवर्ग की आलोचना, निन्दा करना । मिथ्यात्व का अभिप्राय विपरीत ज्ञान और ज्ञान का अभाव दोनों ही हैं । साथ ही एकांत अथवा निरपेक्ष ज्ञान भी मिथ्यात्व ही है । इसका कारण यह है कि वस्तु सापेक्षात्मक तथा अनन्तधर्मात्मक होती है-उदाहरणतः अग्नि में पाचकता, प्रकाश, ताप आदि अनेक गुण धर्म होते हैं, उनमें से एक गुण को स्वीकार करके अन्य गुणों का अपलाप करना दृष्टि विपर्यास अथवा ज्ञान की न्यूनता होने से वस्तु को पूर्णतः न समझना है। मिथ्यात्व का प्रत्यय आत्मनिष्ठ (subjective) और वस्तुनिष्ठ (objective) दोनों ही प्रकार का होता है। मिथ्यात्व वस्तुतः तत्व के प्रति अविश्वास, गलत विश्वास है। इस विश्वास के परिणामस्वरूप ज्ञान में मलिनता आती है और ज्ञान की मलिनता के कारण निर्दोष आचरण नहीं हो पाता। ऐसे व्यक्ति (मिथ्यात्वी) का सदोष आचरण स्वयमेव ही अनैतिक बन जाता है । इस प्रकार मिथ्यात्व अनैतिकता का प्रारम्भ बिन्दु है। यह सम्पूर्ण जीवन को अनैतिक बना देता है तथा इसकी चरम परिणति आचरण की अनैतिकता के रूप में व्यक्त होती है। मिथ्यात्व के विपरीत सम्यक्त्व का अभिप्राय है वस्तु के प्रति यथार्थ दृष्टिकोण-विश्वास । यथार्थ विश्वास से ज्ञान में निर्मलता आती है, परिणामस्वरूप आचरण भी निर्दोष होता है। इसीलिए जैन दर्शन ने १ विपरीत मिथ्यात्व १४वें क्रम में भी आ चुका है । अतः यहाँ इसका अभिप्राय मिथ्या अभिनिवेश समझना चाहिए। जिसमें विपरीतता का आवेश अथवा हठ रखा जाता है, इस मिथ्यात्व में अहंकार की प्रधानता होती है। लेखक २ श्री अलोक मुनि-सम्यग्दर्शन : एक अनुशीलन, पृष्ठ ४४३-४४६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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