SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन नीति का आधार : सम्यग्दर्शन | १६१ (१२) वैनयिक मिथ्यात्व-परम्परागत धारणाओं को ज्यों की त्यों बिना ऊहापोह किये स्वीकार कर लेना। (१३) संशय मिथ्यात्व-संदेह की स्थिति में पड़े रहना, तथ्य का निर्णय न करना। संशय और जिज्ञासा में अन्तर है । संशय में लक्ष्य-विमुखता होती है, जबकि जिज्ञासा में सरलता और लक्ष्याभिमूखता होती है। जिज्ञासा में तत्व का निश्चय करने की भावना रहती है जबकि संशय अनिश्चय की अवस्था—दोलायमान स्थिति है। (१४) विपरीत मिथ्यात्व-वस्तु को उसके स्वभाव के विपरीत रूप में जानना, समझना और वैसा ही निश्चय करना । (१५) अज्ञान मिथ्यात्व-शुभाशुभ, तत्त्वातत्त्व के निर्णय की क्षमता का अभाव अज्ञान मिथ्यात्व है। स्थानांग सूत्र में इन्हीं पाँचों मिथ्यात्वों को (१) अनाभिग्नहिक (परंपरागत धारणाओं को बिना समीक्षा के स्वीकार करना), (२) आभिग्रहिक (किसी के उपदेश से या प्रभाव में आकर सत्य तत्व को अस्वीकार करते रहना), (३) आभिनिवेशिक (असत्य मान्यता को भी अहंकार-वश हठपूर्वक पकड़े रहना), (४) सांशयिक (संशयशील बने रहना, तत्व का निश्चय न करना) और (५) अनाभोगिक (विवेक या ज्ञान क्षमता का अभाव) कहा गया है। (१६) लौकिक मिथ्यात्व-लोकरूढ़ि में अविचारपूर्वक बँधे रहना। (१७) लोकोत्तर मिथ्यात्व-पारलौकिक उपलब्धियों के निमित्त स्वार्थवश धर्माचरण अथवा नैतिकता का आचरण करना अथवा उन धारणाओं से ग्रस्त रहना। . (१८) कुप्रावचनिक मिथ्यात्व-मिथ्या दार्शनिक विचारणाओं को स्वीकृत करना। (१६) न्यून मिथ्यात्व–पूर्ण सत्य या तत्वस्वरूप को आंशिक सत्य समझना या न्यून मानना । (२०) अधिक मिथ्यात्व-आंशिक सत्य को उससे अधिक पूर्ण सत्य समझ लेना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy