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________________ १९४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन वर्गीकरण भी किया गया है । बड़े ही प्रभावशाली ढंग से सम्यक्त्व का महत्व बताकर मानव को इसे ग्रहण करने की प्रेरणा दी गई है । सम्यग्दर्शन का लक्षण जैन धर्म में सम्यग्दर्शन अत्यधिक चर्चित विषय रहा है । अतः इसके लक्षण भी विविध नयों और अपेक्षाओं से दिये गये हैं । किन्तु व्यवहार से इसका सर्वसम्मत लक्षण इस प्रकार दिया गया है पदार्थों का दुरभिनिवेश रहित यथार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है ।" दुरभिनिवेश का अर्थ कदाग्रह है, जिसका अभिप्राय है अपनी मिथ्या - धारणा के प्रति अहंकारपूर्वक हठ करना । आगमसम्मत व्यावहारिक दृष्टि से सम्यग्दर्शन का लक्षण दो प्रकार से प्राप्त होता है - (१) देव - गुरु-धर्म की श्रद्धा और ( २ ) सात अथवा नो तत्वों का श्रद्धान | देव का यहाँ सच्चे देव से अभिप्राय है - जिसका लक्षण इस प्रकार दिया गया है - जो सर्वज्ञ हो, रागद्व ेष आदि विकारों को जिसने जीत लिया हो, जो तीनों लोकों द्वारा पूज्य हो और यथार्थ वस्तु स्वरूप का कथन करने वाला हो, ऐसे अरिहंत परमेष्ठी ही सच्चे देव हैं । गुरुका लक्षण है - पाँचों इन्द्रियों को वश में करने वाले, नौ प्रकार की ब्रह्मचर्य गुप्तियों को धारण करने वाले, चार प्रकार के कषायों से मुक्त तथा पंच महाव्रतों के पालक, ज्ञानादि पाँच प्रकार के आचार को पालन १ जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप : देवेन्द्र मुनि शास्त्री, पृ० १०५ २ अरिहंतो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो । जिणपण्णत्तं तत्त इइ समत्तं मए गहियं ॥ , ३ तहियाणं तु भावाणं सब्भावे उवएसेणं । भावेणं सद्दहंतस्स सम्मत्तं तं वियाहियं ॥ ४ सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्र लोक्य पूजितः । यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः ।। Jain Education International - आवश्यक सूत्र - उत्तराध्ययन सूत्र २८ / १५ For Personal & Private Use Only - योगशास्त्र २/४ www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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