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नैतिक निर्णय | १८५ की अपेक्षा व्यक्ति को नैतिक अथवा अनैतिक कहा जाता है और इन्हीं कार्यों पर नैतिक निर्णय लागू होता है।
__ अनैच्छिक कार्य वे होते हैं जो स्वतः ही होते रहते हैं। इनमें व्यक्ति को किसी प्रकार की इच्छा, संकल्प, आदि करने की आवश्यकता ही नहीं होती, इनमें किसी प्रकार के संवेग भी नहीं होते।
इनको स्वतः चालित (automatic) तथा गत्यात्मक (motory) क्रियाएँ कहा जाता है । यह सहज क्रियात्मक होते हैं ।
पाचन क्रिया, श्वासोच्छ्वास क्रिया, आदि ऐसी सभी क्रियाएँ अनैच्छिक कार्य हैं।
इन क्रियाओं का उत्तरदायित्व कर्ता पर नहीं होता । अतः यह नीति शास्त्र और यहाँ तक कि धर्मशास्त्र, आचारशास्त्र आदि सभी शास्त्रों की सीमाओं से परे हैं, बाहर हैं।
ईर्यापथिकी क्रिया और सांपरायिकी क्रिया के रूप में जैन दर्शन ने भी इसी प्रकार की दो क्रियाएँ मानी हैं। ठाणांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन तत्वार्थसूत्र * में क्रियाओं का वर्णन हुआ है । यद्यपि क्रियाओं की संख्या १३, २५, ३६ आदि विभिन्न अपेक्षाओं से है किन्तु प्रमुख वर्गीकरण ईर्यापथिक और सांपरायिक यह दो प्रकार का ही है, इसी में सभी क्रियाएँ समाविष्ट हो जाती हैं।
नीतिशास्त्र की सीमा में आने वाली सभी क्रियाएँ सांपरायिक क्रियाएँ हैं, जिनके लिए कर्ता उत्तरदायी है। इन्हीं से व्यक्ति को नैतिक-अनैतिक कहा जाता है । क्योंकि यह क्रियाएँ राग-द्वेष, कषाय आदि से अनुरंजित, अनुप्राणित और प्रेरित होती हैं । यही Voluntary actions हैं ।
ईपिथिकी क्रियाएँ मन-वचन काय योग के परिस्पन्दन मात्र से सहज होती हैं। इनमें राग-द्वोष, संकल्प आदि का अंश नहीं होता, इसीलिए कर्मबंधन भी नहीं होता। चूंकि कर्ता इन क्रियाओं के लिए उत्तरदायी नहीं
१. (क) ठाणांगसूत्र स्थान २ (ख) प्रज्ञापना पद २२ २. सूत्रकृतांग, द्वितीय श्रु तस्कन्ध, दूसरा अध्ययन ३. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन ३१, गाथा १२ ४. तत्वार्थसूत्र, अध्याय ६, सूत्र ५
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