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१८४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
सामान्य दृष्टि से बादशाह का क्वारी कन्या को इस स्थिति में मृत्युदन्ड देना उचित ही कहा जाता, इसे सभी धर्मानुमोदित और नैतिक ही कहते, कोई भी इसे अनैतिक न कहता ।
किन्तु नीति अथवा नैतिक निर्णय सामान्य दृष्ट्या नहीं लिए जा सकते । बहुत बार ऐसे निर्णय अनैतिक भी हो जाते हैं।
इसीलिए दण्ड निर्णय के विषय में और विशेष रूप से मृत्युदण्ड के निर्णय के विषय में आधुनिक न्याय की भी यही मान्यता है कि मृत्युदण्ड या तो दिया ही न जाए और यदि देना ही पड़े तो बहुत ही छान-बीन के बाद ही दिया चाहिए, क्योंकि यदि बाद में ऐसे तथ्य (facts) सामने आते हैं, जिनसे वह व्यक्ति निर्दोष प्रमाणित होता है तो उसका जीवन लौटाने में न्याय सक्षम नहीं है।
न्याय के इस सिद्धान्त के अनुरूप ही नीति का विवेक-निर्णय का सिद्धान्त है। इसका हार्द यही है कि सतही तौर पर किसी भी बात का निर्णय नहीं करना चाहिए अपितु बहुत ही गहराई से छानबीन कर ठोस जानकारी के आधार पर यथातथ्य निर्णय करना आवश्यक है अन्यथा नैतिक लगने वाले निर्णय भी घोर अनैतिक बनते देर नहीं लगती।
विवेकपूर्ण नैतिक निर्णय के लिए नीति का यह श्लोक पूर्णतया सटीक है
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ।
वृणुते हि विमृश्यकारिणं, गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः । । कोई काम सहसा नहीं करना चाहिए । अविवेक ही बड़ी-बड़ी आपत्तियों का कारण है। सोच-विचारकर कार्य करने वाले के पास संपदाएँ स्वयं ही चली आती हैं। कुछ कार्य नीति से परे भी
सभी मानवीय क्रियाएँ नीतिशास्त्र के अन्तर्गत नहीं आतीं कुछ ऐसी भी क्रियाएँ हैं जो नीतिशास्त्र की सीमा से परे हैं। इस अपेक्षा से मानवीय क्रियाओं को दो भागों में विभाजित किया गया है
(१) ऐच्छिक कार्य (Voluntary Actions)
(२) अनैच्छिक कार्य (Non-Voluntary Actions) ___ ऐच्छिक कार्य वे हैं, जिन्हें व्यक्ति इच्छापूर्वक करता है, इनमें मूलप्रवृत्तियों, संकल्प, संवेग आदि की भी प्रेरणा रहती है। इन्हीं कार्यों की
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