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नतिक निर्णय | १८३
आदेश सुना तो वह इस युवा कन्या से मिले, भांति-भांति के प्रश्न किये लेकिन उन्हें वह लड़की दुराचारिणी नहीं मालूम हुई। उन्होंने बादशाह को बहुत समझाया किन्तु वह अपने कठोर निर्णय से टस से मस न हुआ।
उस समय जैनाचार्य श्री अमरसिंह जी म. दिल्ली में ही विराजमान थे । खींवसीजी भंडारी उनके दर्शन करने गये तो उनके मुंह पर उदासी थी। आचार्यश्री के पूछने पर उन्होंने अपनी उलझन प्रकट की-कन्या निर्दोष मालूम पड़ती है फिर भी बादशाह उसे दोषी मानकर मृत्युदण्ड देने पर उतारू है। आचार्यश्री ने उन्हें बताया कि पाँच कारणों से स्त्री पुरुष-सहवास के बिना भी गर्भवती हो सकती है
१. पुरुष वीर्य से संस्रष्ट स्थान को अपने गुह्य स्थान से आक्रान्त कर बैठी हुई स्त्री के योनि-देश में शुक्र-पुद्गलों का आकर्षण होने पर
२. शुक्र-पुद्गलों से संस्रष्ट वस्त्र के योनि-देश में अनुप्रविष्ट होने पर
३. पुत्रार्थिनी होकर स्वयं अपने ही हाथों से शुक्र-पुद्गलों को योनिदेश में अनुप्रविष्ट कर देने पर
४. दूसरों के द्वारा शुक्र-पुद्गलों को योनि-देश में अनुप्रविष्ट किये जाने पर
५. नदी, तालाब आदि में स्नान करती हुई स्त्री के योनि-देश में शुक्र-पुद्गलों के अनुप्रविष्ट हो जाने पर ।
किन्तु ऐसे गर्भ से जो पिंड उत्पन्न होता है उसमें पुरुष प्रदत्त अंग अस्थि आदि नहीं होते और वह पिंड बुलबुले के समान कुछ ही क्षणों में स्वयं विनष्ट हो जाता है।
बादशाह ने खींवसीजी भंडारी से यह संपूर्ण रहस्य जानकर मृत्यु. दण्ड का आदेश स्थगित कर दिया और उस कन्या के चारों ओर कड़ा पहरा लगवा दिया। उस कन्या के गर्भ से जो पिंड निकला वह थोड़ी ही देर में बुलबुले के समान विनष्ट हो गया। - बहादुरशाह प्रभावित हुआ। उसने आचार्यश्री से जीव-वध न करने और मांस न खाने के नियम ग्रहण किये ।
१. स्थानांग सूत्र, स्थान ५, सूत्र ४१६ २. लेखक की जैन जगत के ज्योतिर्धर आचार्य, प्रकाश २, पृ० २३-२६ का सार
संक्षेप
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