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________________ १८२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन इस प्रकार यह प्रथा एक भयंकर दुर्नीति के रूप में समाज और राज्य तथा व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन के लिए व्यभिचार, क्लेश, कलह, संघर्ष का कारण बनी । विवेक के आधार पर निर्णय लेने वाले नैतिक व्यक्ति को ऐसी हानिकारक रूढ़ियों को तोड़ने का निश्चय करना पड़ता है और उसका यह निश्चय पूर्ण रूप से नैतिक होता है । जटिल परिस्थितियों में विवेकपूर्ण निर्णय कभी-कभी मनुष्य के सामने ऐसी स्थिति समुत्पन्न हो जाती है, जो स्पष्टतः अधार्मिक, अनैतिक दिखाई देती है । स्पष्ट परिलक्षित होता है कि अमुक व्यक्ति ने निश्चित ही पापाचार किया है । ऐसी दशा में गम्भीर व्यक्ति का भी मानस खलबला उठाता है, हृदय क्रोध के आवेग में भर जाता है, वह तुरन्त ही उस व्यक्ति को कठोर से कठोर दण्ड सुना देता है, मृत्यु दण्ड भी दे देता है, उस व्यक्ति को बोलने तक का अवसर नहीं देता है । लेकिन नैतिकता का तकाजा है कि चाहे स्पष्टतः व्यक्ति अपराधी ही दृष्टिगत हो रहा हो, फिर भी आवेगों में बहकर कभी कोई निर्णय नहीं करना चाहिए, अन्यथा वह धर्मानुमोदित दिखाई देने वाला निर्णय भी अनैतिक और पापपूर्ण बन जाता है। ऐसी ही स्थिति अन्तिम मुगल सम्राट बहादुरशाह के सामने समुपस्थित हो गई थी जिसमें नैतिक निर्णय की प्रमुख भूमिका एक महान जैनाचार्य ने वहन की । घटना इस प्रकार है बादशाहों के रनिवास तो बड़े होते ही हैं । उनके रनिवास में उनकी स्त्रियों (बेगमों) की संख्या अधिक होती है, और लड़कियाँ भी बहुत होती हैं। बादशाह बहादुरशाह की अनेक पुत्रियों में से एक कुंवारी युवा पुत्री गर्भवती हो गई। यह सूचना प्राप्त होते ही बादशाह एकदम तिलमिला • गये । उनकी आंखों से अंगारे बरसने लगे । बिना विशेष छानबीन किये और मामले को गहराई से समझे बिना ही आदेश दे दिया "ऐसी पापिनी कन्या का मुंह भी देखना पाप है, उसे जल्दी से जल्दी खत्म कर दिया जाय । " जोधपुरनरेश अजीतसिंह जी के प्रधान खींवसी जी भंडारी ने यह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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