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________________ नैतिक निर्णय | १६६ जैसे नींद आने पर भी हवादार शान्त स्थान, आरामदायी विस्तर तकिया आदि की भी इच्छा रहती है। फिर मानव की इच्छाए शारीरिक तो होती ही हैं, मानसिक और भावात्मक भी होती है। वह मैथन सेवन के साथ-साथ भावात्मक प्रम सम्बन्ध की भी इच्छा करता है। उसे विभिन्न प्रकार के संग्रह से भावात्मक संतुष्टि प्राप्त होती है। यदि कोई व्यक्ति धार्मिक वृत्ति वाला है तो उसे संत्सग शास्त्र वाचन आदि की इच्छा रहती है। अनेक प्रकार की इच्छाओं के कारण उन इच्छाओं में संघर्ष होना अवश्यम्भावी है क्योंकि दो विरोधी इच्छाओं का एक साथ सन्तुष्ट होना असम्भव है। एक पौराणिक उदाहरण लीजिए-व्यक्तिगत रूप से राम सीता को वनवास देना नहीं चाहते थे; किन्तु लोकापवाद को शान्त करने की इच्छा भी उनके मन में थी। इन दो विपरीत इच्छाओं की पूर्ति असंभव थी। राम अन्तर्द्वन्द्व में फँस गये। आखिर उन्होंने सीताजी को वनवास देने का निर्णय किया। मनोविज्ञान के अनुसार ऐसी परस्पर विरोधी इच्छाएँ मानव मन में उठा ही करती हैं, प्रत्येक इच्छा अपनी सन्तुष्टि चाहती है और इस रूप में इन इच्छाओं में संघर्ष होता रहता है। (३) इच्छाओं के परिणामों का नैतिक विश्लेषण-मानव विकसित चेतना वाला प्राणी है। इच्छाओं के पारस्परिक संघर्ष में वह नैतिक दृष्टि से उन इच्छाओं के परिणामों का नैतिक विश्लेषण करता है, गुण-दोषों का विचार करता है, उनके उचित अनुचित परिणामों पर गहरी दृष्टि डालता है जैसाकि सीता को वनवास देने के निर्णय से पहले अन्तर्द्वन्द्व में फँसे श्रीराम ने किया। (४) नैतिक निर्णय-अब तक की तीनों अवस्थाओं में तो मूल प्रवत्तियों की प्रमुखता थी। तीसरी स्थिति में नैतिकता और मूल प्रवृत्तियों का संघर्ष रहा। किन्तु इस चौथी स्थिति में मानव किसी एक इच्छा की प्रति का निर्णय कर लेता है । यही निर्णय मानव को नैतिक अथवा अनैतिक के रूप में व्यक्त करता है। नैतिक मानव का निर्णय नैतिकतापूर्ण होता है और जो मूलप्रवृत्तियों के बहाव में बह जाता है, वह अनैतिक निर्णय भी कर सकता है । किन्तु ऐसा निर्णय नीतिशास्त्र की दृष्टि से अनुचित है। ____ नैतिक निर्णय लेते समय सर्वाधिक महत्व मूल्य का होता है । व्यक्ति अपनी इच्छाओं का मूल्य (value) निर्धारित करता है और जिस इच्छा . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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