________________
१६४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
जैन दर्शन मन को जड़ और चेतन दोनों ही रूप में स्वीकार करता है तथा पौद्गलिक मन को द्रव्यमन तथा चेतनमन को भाव-मन कहता है।
विज्ञान इसे mind कहता है तथा इसे मस्तिष्क (brain) में अवस्थित मानता है । वैज्ञानिक मान्यता है कि शरीर के ज्ञानवाही तथा संवेदनावाही तन्तु विभिन्न प्रकार के अनुभवों को मस्तिष्क तक पहुंचाते हैं, मन अथवा मस्तिष्क सुखद या दुखद तदनुकूल प्रतिक्रिया व्यक्त करता है और शरीर तन्त्र इसके अनुसार कार्य करता है।
बौद्धों ने मन को हृदय प्रदेशवर्ती स्वीकार किया है और सांख्य परम्परा सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त मानती है ।
जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य-मन और भाव-मन दोनों ही सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हैं। द्रव्य मन तो पौद्गलिक है, भाव-मन आत्मरूप है चेतन है और चंकि जैन दर्शन के अनुसार आत्मा सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है इसलिए भाव-मन भी सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है ।
मन की यह विशेषता है कि यही सम्पूर्ण इच्छाओं-वासनाओं का अवस्थान है। जैन दर्शन के इस सिद्धान्त से आधुनिक मनोविज्ञानशास्त्री पूर्णरूप से सहमत हैं।
जैन दर्शन सम्मत भाव-मन और द्रव्य-मन का सम्बन्ध स्पष्टतया सुनिश्चित होने के उपरान्त ही मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों का नीतिशास्त्रीय विश्लेषण और विवेचन सही ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है।
इस सम्बन्ध में डा० कालघटगी का मत है कि उनका (जैनों का) द्रव्यमन और भावमन का सिद्धान्त इस क्रिया-प्रतिक्रिया (मानसिक और शारीरिक क्रिया प्रतिक्रिया) की धारणा को स्पष्ट रूप से व्यक्त करता है। जैन दृष्टिकोण जड़ और चैतन्य के मध्य पारस्परिक क्रिया प्रतिक्रिया को धारणा को संस्थापित करता है।
___इसका अभिप्राय यह है कि मन में अवस्थित इच्छाएँ आदि बाहरी परिस्थितियों, तत्वों, सामाजिक मान्यताओं, पारस्परिक व्यवहार आदि से
१. अभिधान राजेन्द्र कोष, खण्ड ६, पृ०७४ २. पंडित सुखलालजी : दर्शन और चिन्तन, भाग १, पृ. १४० 3. Dr. Kalghatgi : Some Problems of Jaina Psychology p. 29
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org