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इसी प्रकार गुणस्थानों (Stages of Spiritual Development) का मनोविश्लेषणात्मक विवेचन और साथ ही नीति शास्त्रीय सन्दर्भ प्रस्तुत पुस्तक की अन्यतम विशेषता है ।
प्रस्तुत खण्ड का विकास बड़े ही वैज्ञानिक ढंग से हुआ है । सर्वप्रथम सही - यथातथ्य विश्वास को जैन नीति का आधार मानकर उस विश्वास का सम्यग्दर्शन के रूप में विस्तृत और नीतिपरक विवेचन किया गया है ।
यह तो सार्वजनीन तथ्य है कि गलत ( मिथ्या ) धारणाओं की बालुई नींव पर नीति का भवन खड़ा नहीं किया जा सकता, क्योंकि नीति का आधार ही सत्य / सत्य धारणा है । उचित-अनुचित कर्तव्याकर्तव्य आदि नैतिक प्रत्ययों का यथातथ्य निर्णय वही कर सकता है, जिसकी दृष्टि सम्यक् हो, श्रद्धा परिष्कृत हो ।
असंस्कारी और सुसंस्कारी दोनों ही प्रकार के बालक विद्यालय में जाते हैं, शिक्षक दोनों ही बालकों को समान रूप से शिक्षा देते हैं, समझाते हैं किन्तु असंस्कारी बालक कुछ भी नहीं समझ पाता, जबकि सुसंस्कारी बालक शिक्षा के सोपान चढ़ता / पार करता चला जाता है ।
स्थिति नैतिकता के सम्बन्ध में है । सम्यक् और सत्य दृष्टिकोण वाला व्यक्ति नैतिक आचरण करने में सक्षम होता है जबकि गलत कोण वाला सक्षम नहीं हो पाता । उसकी तो वही स्थिति होती है
फूल हिं- फलहिं न बेंत, सुधा सरस बरसे जलद । मूरख हृदय न चेत, जो गुरु मिलें बिरंचि सम ||
इसलिए जैन-नीति के आधार रूप में सम्यग्दर्शन के वर्णन के साथसाथ नैतिक जीवन पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है, इसे स्पष्ट किया है ।
तीसरे खण्ड में मुनिश्री ने पश्चिमी नैतिक वादों से जैन-नीति की तुलना करके यह स्पष्ट किया है कि ये वाद जैन-नीति के कहाँ तक अनुकूल हैं और कहाँ से उनकी राहें अलग हो गई हैं । और वे राहें कैसी हैं, उचित अथवा अनुचित ? और इस अलगाव में देश-काल की परिस्थितियों का कितना और कैसा प्रभाव है ?
अन्तिम अध्याय जैन-नीति का आधुनिक समस्याओं के समाधान में योगदान ऐसे अहिंसक / नैतिक उपाय सुझाता है कि समाज और राष्ट्र में सुख-शान्ति की सरिता बहती रहे, घर-परिवार कहीं भी क्लेश का वातावरण न रहे, सर्वत्र समता और हँसी खुशी के सुमन खिलते रहें ।
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