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नीतिशास्त्र का अध्ययन दो रूपों में किया जा सकता है - १. संकलन और २. विश्लेषण ।
संकलन में नीति सम्बन्धी बिखरी हुई सामग्री को एक स्थान पर एकत्र किया जाता है और फिर उसका विश्लेषण किया जाता है तथा मानव मात्र के लिए उपयोगी सिद्धान्त निर्धारित किये जाते हैं। वर्गीकरण द्वारा विश्लेषण में वैज्ञानिकता का पुट दिया जा सकता है और संकलित सामग्री के चयन में सुगठितता, सरलता तथा प्रामाणिकता का समावेश किया जा सकता है। साथ ही विश्लेषण चरण में तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए, नीति के बदलते हुए - - युगानुरूप परिवर्तित रूप की समीक्षा के उपरान्त एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचना सुगम हो जाता है ।
उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि द्वारा रचित 'जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन' पुस्तक नीतिशास्त्रीय विवेचन के उपरि लिखित सभी गुणों से आप्यायित है । संकलन और विश्लेषण दोनों ही चरणों का सम्यक् रीत्या - निर्वाह किया गया है ।
पुस्तक का क्षेत्र बहुत विस्तृत है । प्रागैतिहासिक काल से लेकर आधुनिक युग तक की नीति का पर्यालोचन प्रथम खण्ड में किया गया है ।
इस खण्ड की प्रमुख विशेषता यह है कि अन्य सभी भारतीय मनीषियों ने नीति का प्रारम्भ ऋग्वेद आदि वैदिक साहित्य के सूक्तों से माना है जबकि प्रस्तुत पुस्तक में नीति का प्रारम्भ प्रागैतिहासिक काल से माना है और इस तथ्य को पुष्ट प्रमाणों से प्रमाणित किया गया है फिर विकास क्रम दिखाते हुए समस्त भारतीय एवं पाश्चात्य नीतियों का सर्वेक्षण किया गया है ।
अन्य विज्ञानों से तुलना तथा अन्य सामान्य विषय तो अन्यत्र भी उपलब्ध हो सकते हैं किन्तु नीतिशास्त्र की शैलियाँ शीर्षक से एक नई वस्तु पाठकों को मिलेगी ।
साथ ही जैन नीति का स्पष्ट परिचय 'भगवान महावीर की नीति सम्बन्धी अवधारणाएँ' अध्याय में मुनिश्री ने जैन - नीति के विशिष्ट तत्वों को स्पष्ट कर दिया है ।
मुनिश्री का ध्येय जैन-नीति का परिचय कराना है, अतः दूसरे खण्ड में जैन-नीति का ही वर्णन हुआ है । इस खण्ड की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि श्रावक व्रत के अतिचारों और श्रमण व्रतों के अपवाद मार्ग की नीति - परक अवधारणाएँ भी प्रस्तुत की गई हैं ।
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