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________________ १५६ / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन अतः उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ईश्वरीय सत्ता की स्वीकृति नैतिकता का एक प्रमुख आधार है। इसका कारण यह है कि सुख की प्राप्ति नैतिकता का चरम लक्ष्य है और ईश्वरत्व में ही अनन्त तथा अव्याबाध सुख है । इसलिए ईश्वरीय सत्ता नैतिक आचार-विचारों की प्रेरणा नीतिशास्त्र का सर्वमान्य आधार है । स्वतन्त्रेच्छा (इच्छा स्वातंत्र्य __ नीतिशास्त्र के अनुसार ईश्वरीय सत्ता की स्वीकृति का यह अभिप्राय नहीं है कि मानव अथवा प्राणीमात्र ईश्वर के हाथ की कठपुतली है, ईश्वर की इच्छा से ही सारी मानवीय प्रवृत्तियां होती हैं । ईश्वरेच्छा बलीयसी-यह सिद्धान्त नीतिशास्त्र को मान्य नहीं है। ईश्वरेच्छा की बजाय नीतिशास्त्र मानव की स्वतन्त्रेच्छा में विश्वास करता है। यदि मानव की इच्छा को स्वतन्त्र न माना जाय तो वह कैसे नैतिक आचरण कर सकेगा और फिर अनैतिक आचरण का उत्तरदायित्व भी उस पर कैसे डाला जा सकता है ? पाणिनि ने 'स्वतन्त्रः कर्ता'' इस सूत्र द्वारा व्याकरणगत कर्ता को स्वतन्त्र माना है, इससे यह भी फलित होता है कि नैतिक दृष्टि से भी वे कर्ता (आत्मा) को स्वतन्त्र मानने के पक्षधर हैं। भगवान महावीर ने अनेक स्थलों पर आत्मा की स्वतंत्रता का उद्घोष किया और सुख-दुःख के लिए आत्मा को ही उत्तरदायी ठहराया है। यहां तक कि उन्होंने धर्म का निश्चय करने में भी आत्मस्वातंत्र्य अथवा आत्मा की इच्छा की स्वतंत्रता की उद्घोषणा की है। __ भगवान महावीर के यह कथन धर्म-दर्शन-अध्यात्म की दृष्टि से जितने महत्वपूर्ण हैं, उससे भी अधिक इनका महत्व नीति के सन्दर्भ में है। कोई कर्म नैतिक है अथवा अनैतिक-इसका निर्णय भी मनुष्य का स्वविवेक १ अष्टाध्यायी १।४।५४ २ (क) अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुपट्ठिय सुपट्ठिओ॥ (ख) कम्मी कम्मेहिं किच्चती। (ग) दुक्खे केण कडे, जीवेण कडे पमाएणं । -उत्तरा २०१३७ -सूत्रकृतांग ६।४ -स्थानांग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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