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नैतिक मान्यताएं | १५७
तथा उसकी स्वतंत्र इच्छा ही कर सकती है और इच्छा स्वातंत्र्य नैतिक कर्मों के लिए अनिवार्य आधार है ।
मनोविज्ञान के अनुसार ' इच्छा - स्वातंत्र्य अपनी इच्छा के अनुसार निश्चय तथा कार्य करने की योग्यता क्षमता और स्वतन्त्रता है ।'
दार्शनिक सिद्धान्तों के अनुसार इच्छा स्वातंत्र्य के तीन रूप हमारे समक्ष आते हैं
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(क) यदृच्छावाद, स्वच्छन्दतावाद या अनियतिवाद (ख) अस्वच्छन्दतावाद या नियतिवाद (ग) आत्मनियमितता अथवा आत्मनियंत्रणवाद |
यदृच्छावाद--संकल्प-स्वतंत्रता अथवा इच्छा - स्वातंत्र्य को पूर्ण स्वतंत्र मानता है । यह वाद प्रेरणाओं को नकारता है और स्थापित करता है कि मानव अनेक इच्छाओं में से किसी एक इच्छा, जो अधिक बलवती हो, को चुनकर उसके अनुसार अपनी प्रवृत्ति कर लेता है, ये कार्य क्षणिक आवेश में होते हैं ।
इस सिद्धान्त का अनुसरण करने पर मानव के भावी क्रिया-कलापों के बारे में न कोई अनुमान लगाया जा सकता है और न ही किसी प्रकार की भविष्यवाणी की जा सकती है ।
जब कि ऐसा होता नहीं, मानव के विषय में भविष्यवाणी की जाती हैं और वे सही भी निकलती हैं ।
इस दृष्टि से यह सिद्धान्त अपूर्ण और एकांगी है ।
नियतिवाद इच्छा स्वातंत्र्य को पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं मानता अपितु इसकी धारणा है कि मानव के कर्म पहले से ही कार्य - अभ्यास, भावनाओं एवं स्थायीभावों के द्वारा सुगठित चरित्र द्वारा नियत होते हैं और मानव को चरित्र के प्रभाव से ही कार्य करने पड़ते हैं इसके अतिरिक्त वे मानव की संकल्प शक्ति को वंशपरम्परा (Heredity) और पर्यावरण ( Environments) से भी प्रभावित मानते हैं ।
इस सिद्धान्त से तो यह फलित होता है कि समान स्वभाव, विचार, वंशपरम्परा तथा वातावरण वाले व्यक्ति एक सा ही नैतिक या अनैतिक आचरण करेंगे जबकि प्रत्यक्ष में ऐसा देखा नहीं जाता । एक माता-पिता के युगल पुत्रों में से भी, सभी प्रकार की समानता होते हुए भी, एक का आचरण नैतिक और सभी के लिए सुखप्रद होता है, जबकि दूसरा घोर
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