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नैतिक मान्यताएं | १५५
कारण विश्वास करना पड़ता है कि हम जानते हैं, यदि यह न हो तो, सम्पूर्ण नैतिक प्रयत्न व्यर्थ और निरर्थक हैं । 1
नैतिक प्रगति का यह सिद्धान्त भगवान महावीर के इस कथन पर आधारित है कि जीव क्रमशः उन्नति करता हुआ मुक्त होता है । गीता में श्रीकृष्ण ने भी यही बात कही है कि - प्रयत्नपूर्वक साधना में लगा हुआ योगी अनेक जन्मों में थोड़े-थोड़े संस्कार एकत्र करके उन जन्मों में संचित कर्म से पापरहित होकर परम गति ( निःश्रेयस् ) को प्राप्त करता है ।"
४. ईश्वर की सत्ता
सामान्यतः यह प्रश्न उठाया जाता है - नैतिक प्रगति की पराकाष्ठा कहाँ है ? नीतिशास्त्र का उत्तर है - निःश्रेयस् प्राप्ति में । और यह निःश्रेयस् क्या है ? इसका समाधान दर्शन देता है - वह समाधान हैईश्वर बनने में अथवा ईश्वरत्व की प्राप्ति में ।
इस प्रकार अन्ततोगत्वा नीतिशास्त्र ईश्वर की सत्ता स्वीकार करता है । काण्ट ने ईश्वरीय सत्ता के लिए दो प्रकार की नैतिक युक्तियाँ दी हैंप्रथम, नैतिक जीवन के लिए सुख और श्रेय का समन्वय आवश्यक है, क्योंकि नैतिक कर्म श्रेय है और सुख उसका फल है ।
द्वितीय, यदि निःश्रेयस्का अनुसंधान करना मानव का नैतिक कर्तव्य है तो इसे (निःश्रेयस् को ) साध्य होना चाहिए और साथ ही ऐसे व्यक्तियों के उदाहरण भी होने चाहिए जिन्होंने उस निःश्रेयस को सिद्ध करके उत्तम सुख उपलब्ध किया है ।
इसी प्रकार कर्तव्य के नियोग और आत्म-विधायक विवेक' की युक्ति देकर काण्ट ने ईश्वरीय सत्ता की सिद्धि की है ।
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If we believe that progress is necessary, it is only because we know that if it is not, moral effort in the end meaningless and futile. -W. M. Urban : Fundamentals of Ethics, p. 436 २ श्रीमद्भगवद्गीता ६।४५
The categorical imperative lead direct to God and affords surety of this reality.
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— Kant's selections from Opus postumum, Scribner's P. 372
God to the morally practical self-legislative reason.
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--- Opus postumum quoted in Kant's selections, p. 373
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