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१५४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
नैतिकता का सर्वोत्तम लक्ष्य ( Summum Bonum) स्वीकार करके कहता है कि यह अनन्त प्रगति केवल इस मान्यता पर सम्भव है कि मनुष्य के व्यक्तित्व और अस्तित्व की स्थिरता अनन्त है - आत्मा अमर है । इस प्रकार आत्मा की अमरता, नैतिक नियमों से अनिवार्यतः सम्बन्धित होने के कारण नीतिशास्त्र की एक व्यवसायात्मक बुद्धि की मान्यता है ।
भगवान महावीर ने तो बहुत पहले ही कह दिया है कि आत्मा का कभी नाश नहीं होता - आत्मा अमर है । 1
अन्य सभी आत्मवादी दर्शन आत्मा की शाश्वतताँ में विश्वास करते हैं। अतः आत्मा की शाश्वतत का दार्शनिक सिद्धान्त नीतिशास्त्र का एक प्रमुख आधार है क्योंकि सम्पूर्ण नीति, नैतिक नियम, शुभ आदि - नीतिशास्त्र का पूरा का पूरा महल आत्मा की अमरता के सिद्धान्त पर ही टिका हुआ है, इस सिद्धान्त के अभाव में नीतिशास्त्र का महल ताश के पत्तों के समान बिखर जायेगा ।
३. प्रगति की अनिवार्यता
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प्रगति का अर्थ नैतिक विकास है । इस प्रगति के दो मानदण्ड हैंसुख और य । यदि आज के मानव भूतकाल के मानवों से अधिक सुखी हैं और कल्याण पथ की ओर बढ़े हैं तो अवश्य ही नैतिक प्रगति हुई है । इसी प्रकार यदि भविष्य के मानव भी सुख और कल्याण के पथ पर बढ़ेंगे तो नैतिक प्रगति हुई मानी जायेगी ।
प्रगति का सिद्धान्त गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त के विपरीत है । गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक वस्तु पृथ्वी की ओर - नीचे को ओर आती है; जबकि प्रगति का सिद्धान्त ऊर्ध्वमुखी है । प्रगति की अनिवार्यता taara लिए अनिवार्य है ।
अरबन ने कहा है – हमें इसकी ( प्रगति की) अनिवार्यता में इस
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१ (क) नत्थि जीवस्स नासोत्ति । (ख) एकः सदा शाश्वतिको ममात्मा.... (ग) एगो मे सासदो अप्पा...... (घ) णिच्चो अविणासी सासओ जीवो (च) अहं अव्वए वि, अहं अवट्ठिएव
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- उत्तराध्ययन सूत्र २ / २७ - अमितगति द्वात्रिंशिका
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- दशवैकालिक, नि० भाष्य ४२ — ज्ञाता सूत्र, १ / ६
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