________________
नैतिक मान्यताएं । १५३
का कार्य नैतिक माना जाता है और है भौ। यदि शल्य क्रिया करते समय मरीज का प्राणान्त हो जाय तो भी उसका कार्य नैतिक है, शुभ है, रोगी के हित के लिए है, जीवन बचाने के लिए है।
वास्तव में, हेतुवाद का हार्द है भावना । भावों के अनुसार ही शुभाशुभत्व का निर्णय होता है और उसी के अनुसार शुभ अथवा अशुभ फल की प्राप्ति प्राणी मात्र को होती है।
ओघनियुक्ति में भी यही बात कही है-अहिंसकत्व का निर्णय अध्यात्म-विशुद्धि की दृष्टि से है, बाह्य हिंसा-अहिंसा की दृष्टि से नहीं।
अतः हेतुवाद और फलवाद का आश्रय लेते हुए भी नीतिशास्त्र नैतिकता के निर्णय के लिए भावात्मक शुभ अथवा अशुभ का आधार लेता है, ठीक उसी तरह जैसे कि भगवान महावीर के वचन ओघनियुक्ति नामक ग्रंथ में संकलित किये गये हैं। गीता में भी यही बात कही है
न हि कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गति तात ! गच्छति । (अच्छा कर्म करने वाले की दुर्गति नहीं होती ।)
२. आत्मा की अमरता हेतुवाद और फलवाद से यह सिद्धान्त फलित होता है कि कर्मों का फल आत्मा को भोगना आवश्यक है। यानी कर्मावस्था का कर्ता और फलावस्था का भोक्ता एक ही व्यक्ति-और सही शब्दों में वही आत्मा है ।
इसका फलित यह है कि आत्मा अमर है। यदि आत्मा अमर न हो तो कर्म और फलभोग में अनवस्था हो जायेगी । कर्म कोई करेगा और फल किसी दूसरे को भोगना पड़ेगा।
बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद में आचार्य हेमचन्द्र ने यही सबसे बड़ा दोष बताया है।
यदि आत्मा अमर न हो तो विकास किसका होगा ?
नैतिक विकास (Moral Progress) की दृष्टि से काण्ट ने भी आत्मा की अमरता अथवा शाश्वतता को स्वीकार किया है । वह निःश्रेयस् को
१ अज्झत्थ विसोहीए; जीवनिकाएहि संथडे लोए।
देसियमहिंसगत्तं, जिणेहि तेलोक्कदरिसीहिं ।
-ओघनियुक्ति ७४७
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org