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१५२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
(१०) यह पुष्ट दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर आधारित होती हैं ।
यही कारण है कि पूर्व - मान्यताओं का नैतिक जीवन में इतना अधिक महत्व है |
जैसाकि उपर्युक्त पंक्तियों में कहा गया है कि यह अभ्युपगम पुष्ट दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर आधारित हैं, इसीलिए आधुनिक नीतिशास्त्री नीतिशास्त्र के आधार रूप में दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं ।
नीतिशास्त्र का दार्शनिक आधार
जितने भी दार्शनिक सिद्धान्त हैं, वे सभी नीतिशास्त्र के आधार माने जा सकते हैं । किन्तु यहां प्रमुख दार्शनिक सिद्धान्तों का नीति के आधार के रूप में विवेचन अपेक्षित है ।
१. हेतुवाद और फलवाद
इसे दार्शनिक शब्दों में कार्य-कारणवाद कहा जाता है । इसका अभिप्राय है जैसा कारण होता है, वैसा ही कार्य होता है । उदाहरणतः बुरे कार्य का परिणाम बुरा होगा, हिंसा का फल बुरा होगा । जैसाकि आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है
हिंसा का फल लंगड़ापन, कोढ़ीपन, हाथ-पैर आदि अंगों की विकलता आदि के रूप में मिलता है । 1
सामान्यतः ऐसा ही होता है ।
हिंसा का सामान्य अभिप्राय किसी को मारना, त्रास देना, उसके अंगों-उपांगों का छेदन करना आदि है ।
लेकिन डाक्टर भी रोगी की शल्य चिकित्सा करता है, उसके अंगोपांगों का छेदन - भेदन करता है, तो क्या यह भी हिंसा कही जायेगी ? क्या डाक्टर को भी अशुभ फल भोगना पड़ेगा ? यदि ऐसा है तो डाक्टर का कार्य अनैतिकता की श्रेणी में आ जायेगा । जबकि प्रत्येक दृष्टि से डाक्टर
१. पंगु - कुष्टि - कुणित्वादि दृष्ट्वा हिंसा फलं सुधीः ।
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- हेमचन्द्राचार्यः योगशास्त्र, प्रकाश २, श्लोक १६
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