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________________ नीतिशास्त्र की प्रणालियां और शैलियां | १४५ वायस साण खराइ निवारिया, हु हवन्ति असुइरुइ । हंस करि सिंह पमुहा न कयावि पणुल्लयावि पुणो ॥ ( कौवा, कुत्ता, गधा आदि मना करने पर भी गंदगी की ओर जाते हैं किन्तु हंस, हाथी और सिंह प्रेरित करने पर भी उधर नहीं जाते ।) यहाँ कौआ आदि दुर्जन के प्रतीक हैं और हंस आदि उत्तम प्रकृति वालों के । कौवा आदि तथा हंस आदि को लक्ष्य करके कही गई यह उक्ति क्रमशः निम्न प्रकृति वाले मानवों तथा उत्तम स्वभाव वाले व्यक्तियों के लिए है । 1 इसी प्रकार की अन्योक्तियाँ संस्कृत नीति काव्य में भी हैं तथा हिन्दी नीतिकाव्य में भी बहुतायत से मिलती हैं । बिहारी की सतसई में इस शैली के बहुत ही प्रभावशाली उदाहरण मिलते हैं। देखिए - को निकस्यो इहि जाल परि, कत कुरंग अकुलात । ज्यों-ज्यों सुरझि भज्यो चहति, त्यों-त्यों उरझत जात ॥ 2 यहाँ हिरन की ओर संकेत करके मानव को नीति की शिक्षा दी गई है कि जितना स्त्री के माया जाल से सुलझकर निकलना चाहता है, उतना ही और अधिक उलझता जाता है । उदाहरण शैली — नीतिकारों ने अपने कथन को स्पष्ट और प्रभविष्णु बनाने के लिए उदाहरण अथवा दृष्टान्तों का सहारा भी लिया है। प्राकृत भाषा की एक सुभाषित गाथा देखिए मणकार्याहं दय करहि जेम ण ढुक्कइ पाउ । उरि सण्णा बद्धइण अवसि ण लग्गइ घाउ ॥ ( मन, वचन और काया से दया करो जिससे पाप न आये । हृदय (वक्षस्थल) पर कवच बाँधने से घाव नहीं लगता । ) यहाँ कवच के उदाहरण से दया को पुष्ट किया गया है । ९ वी. एम. शाह : प्राकृत सुभाषित संग्रह, १९३५, सूरत, पृ. ४εε २ बिहारी सतसई ३ सावय धम्म, पू. ६० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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